श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
उत्तर- मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्गादि इस लोक और परलोक के भोगों की प्राप्ती के लिये या रोग आदि की निवृत्ति के लिये जो किसी वस्तु का दान किसी व्यक्ति या संस्था को दिया जाता है। वह फल के उद्देश्य दान देना है। कुछ लोग तो एक ही दान से एक ही साथ कई लाभ उठाना चाहते हैं। जैसे- (क) जिसको दान दिया गया है, वह उपकार मानेगा और समय पर अच्छे-बुरे कामों में अपना पक्ष लेगा। (ख) ख्याति होगी, जिससे प्रतिष्ठा बढ़ेगी और सम्मान मिलेगा। (ग) अखबारों में नाम छपने से लोग बहुत धनी आदमी समझेंगे और इससे व्यापार में भी कई तरह की सहूलियतें होंगी और अधिक-से-अधिक धन कमाया जा सकेगा। (घ) अच्छी प्रसद्धि होने पर लड़के–लड़कियों के सम्बन्ध भी बड़े घराने में हो सकेंगे,जिनसे कई तरह के स्वार्थ सधेंगे। (ङ) शास्त्र के अनुसार परलोक में दान का कई गुना उत्तम-से-उत्तम फल तो प्राप्त होगा ही। इस प्रकार की भावनाओं से मनुष्य दान के महत्त्व को बहुत ही कम कर देते हैं। प्रश्न- ‘वा’, ‘पुनः’ और ‘च’-इन तीनों अव्ययों के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- इन तीनों का प्रयोग करके यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि उपर्युक्त तीनों प्रकारों में से किसी भी एक प्रकार से दिया हुआ दान राजस हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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