कविता भाटिया (वार्ता | योगदान) |
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− | जो भोग भोगने के उद्देश्य से ऊँचे लोकों में जाते हैं, उनका उन लोकों में जाना कर्मजन्य है। परंतु योगभ्रष्ट का ऊँचे लोकों में जाना कर्मजन्य नहीं है; किंतु यह तो योग का प्रभाव है, उनकी साधन-संपत्ति का प्रभाव है, उनके सत-उद्देश्य का प्रभाव है। [[स्वर्ग]] आदि का सुख भोगने के उद्देश्य से जो उन लोकों में जाते हैं, उनको न तो वहाँ रहने में स्वतंत्रता है और न वहाँ से आने में ही स्वतंत्रता है। उन्होंने भोग भोगने के उद्देश्य से ही यज्ञादि कर्म किए हैं, इसलिए उन शुभ कर्मों का फल जब तक समाप्त नहीं होता, तब तक वे वहाँ से नीचे नहीं आ सकते और शुभ | + | जो भोग भोगने के उद्देश्य से ऊँचे लोकों में जाते हैं, उनका उन लोकों में जाना कर्मजन्य है। परंतु योगभ्रष्ट का ऊँचे लोकों में जाना कर्मजन्य नहीं है; किंतु यह तो योग का प्रभाव है, उनकी साधन-संपत्ति का प्रभाव है, उनके सत-उद्देश्य का प्रभाव है। [[स्वर्ग]] आदि का सुख भोगने के उद्देश्य से जो उन लोकों में जाते हैं, उनको न तो वहाँ रहने में स्वतंत्रता है और न वहाँ से आने में ही स्वतंत्रता है। उन्होंने भोग भोगने के उद्देश्य से ही यज्ञादि कर्म किए हैं, इसलिए उन शुभ कर्मों का फल जब तक समाप्त नहीं होता, तब तक वे वहाँ से नीचे नहीं आ सकते और शुभ कर्म का फल समाप्त होने पर वे वहाँ रह भी नहीं सकते। परंतु जो [[परमात्मा]] की प्राप्ति के लिए ही साधन करने वाले हैं और केवल अंत समय में योग से विचलित होने के कारण स्वर्ग आदि में गए हैं, उनका वासना के तारतम्य के कारण वहाँ ज्यादा-कम रहना हो सकता है, पर वे वहाँ के भोगों में फँस नहीं सकते। कारण कि जब योग का जिज्ञासु भी शब्द ब्रह्म का अतिक्रमण कर जाता है<ref name="a">6।44</ref>, तब वह योगभ्रष्ट वहाँ फँस ही कैसे सकता है? |
'''‘शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते’'''- स्वर्गादि लोकों के भोग भोगने पर जब भोगों से अरुचि हो जाती है, तब वह योगभ्रष्ट लौटकर मृत्युलोक में आता है और शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेता है। उसके फिर लौटकर आने में क्या कारण है? वास्तव में इसका कारण तो [[भगवान कृष्ण|भगवान]] ही जानें; किंतु [[गीता]] पर विचार करने से ऐसा दिखता है कि वह मनुष्य जन्म में साधन करता रहा। वह साधन को छोड़ना नहीं चाहता था, पर अंत समय में साधन छूट गया। अतः उस साधन का जो महत्त्व उसके अंतःकरण में अंकित है, वह स्वर्गादि लोकों में भी उस योगभ्रष्ट को अज्ञातरूप से पुनः साधन करने के लिए प्रेरित करता रहता है, उकसाता रहता है। इससे उस योगभ्रष्ट के मन में आती है कि मैं साधन करूँ। ऐसी मन में क्यों आती है- इसका उसको पता नहीं लगता। जब श्रीमान के घर में भोगों के परवश होने पर भी पूर्वजन्म का अभ्यास उसको जबर्दस्ती खींच लेता है<ref name="a"/>, तब वह साधन उसको [[स्वर्ग]] आदि में साधन के बिना चैन से कैसे रहने देगा? अतः भगवान उसको साधन करने का मौका देने के लिए शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म देते हैं। | '''‘शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते’'''- स्वर्गादि लोकों के भोग भोगने पर जब भोगों से अरुचि हो जाती है, तब वह योगभ्रष्ट लौटकर मृत्युलोक में आता है और शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेता है। उसके फिर लौटकर आने में क्या कारण है? वास्तव में इसका कारण तो [[भगवान कृष्ण|भगवान]] ही जानें; किंतु [[गीता]] पर विचार करने से ऐसा दिखता है कि वह मनुष्य जन्म में साधन करता रहा। वह साधन को छोड़ना नहीं चाहता था, पर अंत समय में साधन छूट गया। अतः उस साधन का जो महत्त्व उसके अंतःकरण में अंकित है, वह स्वर्गादि लोकों में भी उस योगभ्रष्ट को अज्ञातरूप से पुनः साधन करने के लिए प्रेरित करता रहता है, उकसाता रहता है। इससे उस योगभ्रष्ट के मन में आती है कि मैं साधन करूँ। ऐसी मन में क्यों आती है- इसका उसको पता नहीं लगता। जब श्रीमान के घर में भोगों के परवश होने पर भी पूर्वजन्म का अभ्यास उसको जबर्दस्ती खींच लेता है<ref name="a"/>, तब वह साधन उसको [[स्वर्ग]] आदि में साधन के बिना चैन से कैसे रहने देगा? अतः भगवान उसको साधन करने का मौका देने के लिए शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म देते हैं। |
01:16, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षष्ठ अध्याय
‘शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते’- स्वर्गादि लोकों के भोग भोगने पर जब भोगों से अरुचि हो जाती है, तब वह योगभ्रष्ट लौटकर मृत्युलोक में आता है और शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म लेता है। उसके फिर लौटकर आने में क्या कारण है? वास्तव में इसका कारण तो भगवान ही जानें; किंतु गीता पर विचार करने से ऐसा दिखता है कि वह मनुष्य जन्म में साधन करता रहा। वह साधन को छोड़ना नहीं चाहता था, पर अंत समय में साधन छूट गया। अतः उस साधन का जो महत्त्व उसके अंतःकरण में अंकित है, वह स्वर्गादि लोकों में भी उस योगभ्रष्ट को अज्ञातरूप से पुनः साधन करने के लिए प्रेरित करता रहता है, उकसाता रहता है। इससे उस योगभ्रष्ट के मन में आती है कि मैं साधन करूँ। ऐसी मन में क्यों आती है- इसका उसको पता नहीं लगता। जब श्रीमान के घर में भोगों के परवश होने पर भी पूर्वजन्म का अभ्यास उसको जबर्दस्ती खींच लेता है[1], तब वह साधन उसको स्वर्ग आदि में साधन के बिना चैन से कैसे रहने देगा? अतः भगवान उसको साधन करने का मौका देने के लिए शुद्ध श्रीमानों के घर में जन्म देते हैं। जिनका धन शुद्ध कमाई का है, जो कभी पराया हक नहीं लेते, जिनके आचरण तथा भाव शुद्ध हैं, जिनके अंतःकरण में भोगों का और पदार्थों का महत्त्व, उनकी ममता नहीं है, जो संपूर्ण पदार्थ, घर, परिवार आदि को साधन सामग्री समझते हैं, जो भोगबुद्धि से किसी पर अपना व्यक्तिगत आधिपत्य नहीं जमाते, वे ‘शुद्ध श्रीमान्’ कहे जाते हैं। जो धन और भोगों पर अपना आधिपत्य जमाते हैं, वे अपने को तो धन और पदार्थों का मालिक मानते हैं, पर हो जाते हैं उनके गुलाम! इसलिए वे शुद्ध श्रीमान् नहीं है। संबंध- पूर्वश्लोक में तो भगवान ने अर्जुन के प्रश्न के अनुसार योगभ्रष्ट की गति बतायी। अब आगे श्लोक में ‘अथवा’ कहकर अपनी ही तरफ से दूसरे योगभ्रष्ट की बात कहते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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