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तीसरे अध्याय के बीसवें श्लोक में जनदाकि का उदाहरण देकर तथा इसी<ref>चौथे</ref> अध्याय के पहले दूसरे श्लोकों में विवस्वान, [[मनु]], [[इक्ष्वाकु]] आदि का उदाहरण देकर भगवान ने जो बात कही थी, वही बात इस श्लोक में भी कह रहे हैं। | तीसरे अध्याय के बीसवें श्लोक में जनदाकि का उदाहरण देकर तथा इसी<ref>चौथे</ref> अध्याय के पहले दूसरे श्लोकों में विवस्वान, [[मनु]], [[इक्ष्वाकु]] आदि का उदाहरण देकर भगवान ने जो बात कही थी, वही बात इस श्लोक में भी कह रहे हैं। |
01:16, 24 मार्च 2018 के समय का अवतरण
श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्थ अध्याय संबंध- पूर्व श्लोक में अपना उदाहरण देकर अब आगे के श्लोक में भगवान मुमुक्षु पुरुषों का उदाहरण देते हुए अर्जुन को निष्काम भावपूर्वक अपना कर्तव्य-कर्म करने की आज्ञा देते हैं। एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुपिः । व्याख्या- [नवें श्लोक में भगवान ने अपने कर्मों की दिव्यता का जो प्रसंग आरंभ किया था, उसका यहाँ उपसंहार करते हैं।] ‘एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः’- अर्जुन मुमुक्षु थे अर्थात अपना कल्याण चाहते थे। परंतु युद्धरूप से प्राप्त अपने कर्तव्य कर्म को करने में उन्हें अपना कल्याण नहीं दीखता, प्रत्युत वे उसको घोर कर्म समझकर उसका त्याग करन चाहते हैं।[2] इसलिये भगवान अर्जुन को पूर्वकाल के मुमुक्षु पुरुषों का उदाहरण देते हैं कि उन्होंने भी अपने-अपने कर्तव्य-कर्म का पालन करके कल्याण की प्राप्ति की है, इसलिये तुम्हें भी उनकी तरह अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिये। तीसरे अध्याय के बीसवें श्लोक में जनदाकि का उदाहरण देकर तथा इसी[3] अध्याय के पहले दूसरे श्लोकों में विवस्वान, मनु, इक्ष्वाकु आदि का उदाहरण देकर भगवान ने जो बात कही थी, वही बात इस श्लोक में भी कह रहे हैं। शास्त्रों में ऐसी प्रसिद्धि है कि मुमुक्षा जाग्रत होने पर कर्मों का स्वरूप से त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि मुमुक्षा के बाद मनुष्य कर्म का अधिकारी नहीं होता; प्रत्युत ज्ञान का अधिकारी हो जाता है[4]। परंतु यहाँ भगवान कहते हैं कि मुमुक्षुओं ने भी कर्मयोग का तत्त्व जानकर कर्म किये हैं। इसलिये मुमुक्षा जाग्रत होने पर भी अपने कर्तव्य कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निष्काम भावपूर्वक कर्तव्य कर्म करते रहना चाहिये। कर्मयोग का तत्त्व है- कर्म करते हुए योग में स्थित रहना और योग में स्थित रहते हुए कर्म करना। कर्म संसार के लिये और योग अपने लिये होता है। कर्मों को करना और न करना- दोनों अवस्थाएँ हैं। अतः प्रवृत्ति[5] और निवृत्ति[6] दोनों ही प्रवृत्ति[7] है। प्रवृत्ति और निवृत्ति- दोनों से ऊँचा उठ जाना योग है, जो पूर्ण निवृत्ति है। पूर्ण निवृत्ति कोई अवस्था नहीं है। चौदहवें श्लोक में भगवान ने कहा कि कर्मफल में मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म नहीं बाँधते। जो मनुष्य कर्म करने की इस विद्या[8] को जानकर फलेच्छा का त्याग करके कर्म करता है, वह भी कर्मों से नहीं बँधता; कारण कि फलेच्छा से ही मनुष्य बँधता है- ‘फले सक्तो निबध्यते’।[9] अगर मनुष्य अपने सुखभोग के लिये अथवा धन, मान, बड़ाई, स्वर्ग आदि की प्राप्ति के लिये कर्म करता है तो वे कर्म उसे बाँध देते हैं।[10] परंतु यदि उसका लक्ष्य उत्पत्ति विनाशशील संसार नहीं है, प्रत्युत वह संसार से संबंध विच्छेद करने के लिये निःस्वार्थ सेवा भाव से केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करता है, तो वे कर्म उसे बाँधते नहीं।[11] कारण कि दूसरों के लिये कर्म करने से कर्मों का प्रवाह संसार की तरफ हो जाता है, जिससे कर्मों का संबंध[12] मिट जाता है और फलेच्छा न रहने से नया संबंध पैदा नहीं होता। ‘कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्’- इन पदों से भगवान अर्जुन को आज्ञा दे रहे हैं कि तू मुमुक्षु है, इसलिये जैसे पहले अन्य मुमुक्षों ने लोकहितार्थ कर्म किये हैं, ऐसे ही तू भी संसार के हित के लिये कर्म कर। शरीर, इंद्रियाँ, मन आदि कर्म की सब सामग्री अपने से भिन्न तथा संसार से अभिन्न है। वह संसार की है और संसार की सेवा के लिये ही मिली है। उसे अपनी मानकर अपने लिये कर्म करने से कर्मों का संबंध अपने साथ हो जाता है। जब संपूर्ण कर्म केवल दूसरों के हित के लिये किये जाते हैं, तब कर्मों का संबंध हमारे साथ नहीं रहता। कर्मों से सर्वथा संबंध विच्छेद होने पर ‘योग’ अर्थात परमात्मा के साथ हमारे नित्य-सिद्ध संबंध का अनुभव हो जाता है, जो कि पहले से ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ उन्हीं की तरह
- ↑ गीता 3।1
- ↑ चौथे
- ↑ तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता। मत्कथाश्रवणादौ व श्रद्धा यावत्र जायते ।। (श्रीमद्भा. 11।20।9) “तभी तक कर्म करने चाहिये, जब तक वैराग्य न हो जाय अथवा जब तक मेरी (भगवान की) कथा के श्रवण आदि में श्रद्धा उत्पन्न न हो जाय।”
- ↑ कर्म करना
- ↑ कर्म न करना
- ↑ कर्म करना
- ↑ कर्मयोग
- ↑ गीता 5।12
- ↑ गीता 3।9
- ↑ गीता 4।23
- ↑ राग
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