श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
भगवदवतार का रहस्य
योग कहते हैं अप्राप्त की प्राप्ति को और प्राप्त के अभाव को कहते हैं वियोग। यहाँ प्राण प्यारे नन्दनन्दन का नित्य संयोग है, फिर योग किसलिये साधें? वियोग ही नही तब योग कैसा? प्रियतम अनेक नहीं हो सकते। वह एक ही होता है। जगत के समस्त प्रिय और प्रियतर पदार्थ परम प्रियतम के चरणों पर सहज ही न्योंछावर कर दिये जाते हैं। कोई भी वस्तु ऐसी नहीं होती, जो प्रियतम की प्रतिद्वन्द्विता कर सके। जब तक हृदय में प्रियतम भाव का कोई प्रतिद्वन्द्वी पदार्थ या भाव रहता है, तब तक वास्तविक प्रियमत भाव की स्थापना ही नहीं हुई। प्रियतम भाव के प्राप्त हो जाने पर उसके सामने सभी पदार्थ तुच्द और नगण्य प्रतीत होने लगते हैं। देवर्षि नारद ने इस प्रियतम-भाव के उपास को में भाग्यवती श्रीकृष्ण-प्रिया व्रजगोपियों का उदाहरण दिया है-यथा व्रजगोपिकानाम्!’ |
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