श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीकृष्ण का दिव्य विग्रह अप्राकृत— भगवत्स्वरूप ही हैभगवान श्रीकृष्ण स्वयं-भगवान हैं, उनका दिव्य शरीर कर्मजनित प्राकृत या सिद्धिजनित ‘निर्माणशरीर’ नहीं है। वह प्राकृत शरीर से सर्वथा विलक्षण हानो पादान रहित दिव्य सच्चिदानन्दमय भगवत्स्वरूप है। इसके प्रचुर प्रमाण श्रीमद्भगवत, महाभारत तथा अन्यान्य ग्रन्थों में उपलब्ध हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण में ही श्रीकृष्ण और सनत्कुमार के वार्तालाप का एक सुन्दर प्रसंग आता है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने अपने को प्राकृत बतलाने की चेष्टा की है और सनत्कुमारने उनके प्रश्नों के उत्तर में उनकी भगवत्ता सिद्ध की है, उनके शरीर को साक्षात् चिदानन्दमय भगवद्देह बतलाया है और ‘वासुदेव’ नाम का बड़ा ही विलक्षण अर्थ किया है। प्रसंग इस प्रकार है- एक बार ब्रह्मतेज से उद्धासित सैकड़ों बड़े-बड़े ऋषि-मुनीश्वर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये आये थे। फिर उस मुनि-सभा में परम तेजः पुण्ज सर्वांगण सुन्दर पाँच वर्ष के नग्न बालक के रूप में श्रीसनत्कुमार जी पधारे। उन्होंने आकर मुनियों से कुशल-प्रश्न करके कहा कि ‘श्रीकृष्ण से तो कुशल पूछना व्यर्थ है। ये स्वयं ही समस्त कल्याण के बीज हैं। अथवा इस समय इन परमात्मा श्रीकृष्ण का दर्शन ही आप लोगों के लिये कुशल है; प्रकृति से अतीत, निर्गुण, निरीह, सर्वबीज और तेजः स्वरूप ये भगवान भक्तों के अनुरोध से ही पृथ्वी का भार उतारने के लिये अवतरित हुए हैं। ‘इस पर भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे कहा- ‘विप्रवर! जब शरीरधारी-मात्र के लिये कुशल-प्रश्न अभीप्सित है, तब एक मैं ही कुशल-प्रश्न का पात्र क्यों नहीं हूँ?’
सनत्कुमार जी ने उत्तर दिया- ‘प्रभो! शुभ-अशुभ सब प्राकृत शरीर में ही हुआ करते हैं; जो शरीर नित्य है और सारे कुशलों का बीज है, उसके लिये कुशल-प्रश्न निरर्थक ही है।’
तब भगवान् बोले-‘विप्रवर! शरीरधारीमात्र ही प्राकृतिक माने जाते हैं; क्योंकि नित्या प्रकृति के बिना शरीर होता ही नहीं।’ |
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