श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
श्रीराधा का स्वरूप
यह उनका अलग साम्राज्य है। उनकी देखा-देखी यदि कोई दूसरा आदमी, जिसके मन में काम और क्रोध का भी त्याग नहीं है, जिसके मन में नाना प्रकार के विकारों का दोष भरा है, वह श्रीकृष्णलीला का, श्रीराधा की लीला का अनुकरण करने चले तो वह तो जहर पीता है। इसलिये राधा के अलग-अलग विभिन्न भाव हैं। कवियों में भी बड़ा अन्तर है। सूर भी कवि हैं, नन्ददासजी भी कवि हैं और दूसरे लोग भी कवि हैं; परंतु श्रीसूरदासजी की तथा नन्ददासजी की आँख में और दूसरे कवियों की आँख में बड़ा भारी अन्तर है। श्रीजयदेव के गीत पढ़िये। गीतगोविन्द में खुला श्रृंगार है। जयदेव महात्मा थे। वे जिस प्रकार के अधिकारी थे, उस प्रकार के अधिकारी श्रृंगारी कवि कौन हैें? इसीलिये जयदेव को आदर्श मानकर श्रीचैतन्य महाप्रभु ने जगह-जगह उनका स्मरण किया है— जो चैतन्य इतने बड़े त्यागी थे कि स्त्री का नाम तक नहीं लेते थे। वे ‘स्त्री’ शब्द का उच्चारण नहीं करते थे। वे स्त्री को ‘प्रकृति’ कहते थे। उस समय श्रीमहाप्रभु के साढ़े तीन भक्त माने जाते थे। उसमें आधे में एक वृद्धा माधवीदेवी मानी जाती थीं। इस प्रकार की परम भक्ता के पास से उनके एक भक्त छोटे हरिदास भिक्षा के लिये चावल माँग लाये। महाप्रभु ने पूछा कि ‘ये चावल कहाँ से लाये?’ उत्तर मिला ‘माधवी मैया के यहाँ से।’ महाप्रभु ने हरिदास को तुंरत निर्वासित कर दिया। कह दिया— ‘तुम हमारे आश्रम में मत आना।’ अस्सी वर्ष की महाभक्ता माधवी के यहाँ से चावल ले आने के कारण महाप्रभु ने इतनी कठोर आज्ञा दे दी। अत्यन्त प्रेम होने पर भी महाप्रभु ने यह आज्ञा दी। भक्त हरिदास के चले जाने पर उसके वियोग में वे रोये, दुःखी हुए। दो वर्ष बाद हरिदास ने त्रिवेणी में जाकर अपना देह-विसर्जन कर दिया। पर महाप्रभु बोले नहीं। उन्होंने कहा कि ‘यह दण्ड मैंने उसे नहीं, स्वयं अपने को दिया है। यह दण्ड मेरे संन्यास और आश्रम की मर्यादा की रक्षा के लिये था।’ इस प्रकार के महात्यागी चैतन्य कवि जयदेव के श्रृंगार भरे पदों को सुनकर नाच उठते थे। उनकी आँखें और थीं। पर जो श्रीकृष्ण को, श्रीराधा को काम जगत् के खुले श्रृंगार में उतारकर, गंदगी में उतारकर अपनी गंदी वासना की पूर्ति करना चाहते हैं, उनकी आँखें दूसरी हैं। बोलचाल में लोग कहते हैं ‘न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।’ |
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