श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
ध्यानफिर तो आप भी यही चाहियेगा-
गोपीभाव ‘सर्वसमर्पण’ का भाव है। इसमें निज-सुख की इच्छा का सर्वथा त्याग हैं गोपीभाव में न तो लहॅंगा, साड़ी या चोली पहनने की आवश्यकता है न पैरों में नूपुर और नाक में नथ की ही। गोपभाव की प्राप्ति के लिये श्रीगोपीजनों का ही अनुगमन करना होगा। ध्यान कीजिये- श्रीकृष्ण मचल रहे हैं और मा यशोदा उन्हें माखन देकर मना रही हैं। श्रीकृष्ण कुजं में पधार रहे हैं, श्रीमती राधिकाजी उनकी अगवानी की तैयारी में लगी हैं। गोपभाव में खास बात है ‘रस की अनुभूति’। श्रीकृष्ण ही मेरे एकमात्र प्राणनाथ हैं। वे ही परम प्रियतम हैं। उनके सिवा मेरे और कुछ भी नहीं है।’ इतना कह देने में ही रस नहीं मिलता। रस के लिये रसभरा हृदय चाहिये। वाणी से बाह्य रस का भान मात्र होता है। एक पतिप्राणा पत्नी प्रेम भरे हृदय से पति को जब ‘प्राणनाथ’ और ‘प्रियतम’ कहती है, तब उसके हृदय में यथार्थ ही यह भाव मूर्तिमान् रहता है। इसी से उसे रसानुभूति होती है! इसी से वह प्राणनाथ के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग करने में नहीं हिचकती या यों कहना चाहिये कि उसके प्राणों पर वस्तुतः पति का ही अधिकार होता है। पति का प्रियतम कहते समय उसके हृदय में स्वाभाविक ही एक गुदगुदी होती है, आनन्द की-रस-लहरी छलकती है। इसी प्रकार भक्त का हृदय भगवान को जब सचमुच अपना ‘प्राणनाथ’ और ‘प्रियतम’ मान लेता है, तभी वह गोपीभाव की प्राप्ति के योग्य होता है और ठीक पत्नी की भाँति जब भगवान को पतिरूप में वरण कर लिया जाता है, तभी उन्हें ‘प्रियतम’ और ‘प्राणनाथ’ कहा जाता है। |
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