श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गोपीहृदय में प्रेम-समुद्रसप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। वास्तव में ये गोपरमणियाँ प्रेम-जगत् की तो परम आदर्श हैं ही, नारी-जगत में भी इनकी कहीं तुलना नहीं है। विश्व तो क्या, भगवत-राज्य में भी किसी भी नारी के चरित्र में नारी-जीवन की महिमामयी सेवा की ऐसी आदर्श मनोहर सहज मूर्ति का विकास नहीं हुआ। सावित्री, अरुधंती, लोपामुद्रा, उमा, रमा- किसी की उपमा श्रीगोपागंनाओं के साथ नहीं दी जा सकती। आत्म सुख-लालसा की गन्ध से रहित होकर केवल अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को सुखी करने के लिये ही जीवन धारण करना, लोक-परलोक, भोग-मोक्ष-सब कुछ भूलकर प्रियतम की रुचि के अनुसार अपने जीवन की क्षण-क्षण की समस्त क्रियाओं का सहज सम्पादन करना ही गोपी-प्रेम है। श्रीकृष्ण स्वयं भगवान हैं, उनमें किसी भी वासना-कामना का पृथक् अस्तित्व नहीं है; पर वे परम प्रेमास्पद भगवान श्रीगोपागंनाओं के प्रेम-सुख का आस्वादन करने-कराने के लिये अपने भगवत्स्वरूपमन में नित्य नयी-नयी विचित्र वासनाओं का उदय करते हैं और भगवान की उन प्रतिक्षण उदय होने वाली नित्य-नवीन वासनाओं के अनुकूल अपने को निर्माण करके भगवान को सुख पहुँचाना केवल श्रीगोपागंनाओं के ही शक्ति-सामर्थ्य से सम्भव है। बस, प्रियतम की रुचि को-चाह को पूर्ण करना ही जिनके जीवन का स्वरूप है, जिनकी प्रत्येक स्फुरणा में, प्रत्येक संकल्प में, प्रत्येक चेष्टा में, प्रत्येक शब्द में और प्रत्येक क्रिया में केवल प्रेमास्पद श्रीकृष्ण की दिव्य प्रेमजनित वासना पूर्ति का ही सहज सफल प्रयास है, उन श्रीगोपांगनाओं की तुलना कहीं, किसी से भी नहीं हो सकती। श्रीगोपांगनाओं में मधुर भाव की पूर्ण अभिव्यक्ति है। इस मधुर भाव से ही मधुर रस का प्राकट्य होता है। एक महात्मा ने बताया है कि यह मधुर रस तीन प्रकार का होता है। तीनों ही अत्यन्त मूल्यवान् हैं, पर एक की अपेक्षा दूसरा अधिक उत्कृष्ट और मूल्यवान् है। जैसे मणियाँ तीन प्रकार की होती हैं- साधारण मणि, चिन्ता मणि और कौस्तुभ मणि। साधारण मणि का जैसा साधारण मूल्य होता है, वैसे ही श्रीकृष्ण के प्रति कुब्जा की प्रीति का मूल्य साधारण है। श्रीकृष्ण-सम्पर्क से महाभागा होने पर भी उसमें श्रीकृष्ण कीसेवा करने केवल अपने को ही सुख पहुँचाने का संधान था। इसी से उसे ‘दुर्भगा’ कहा गया। चिन्तामणि जहाँ-तहाँ सहज में नहीं मिलती। उसका मूल्य भी बहुत अधिक है। सब लोग उतना मूल्य दे नहीं सकते। वैसे ही श्रीकृष्ण की पटरानियों की दिव्य प्रीति है। श्रीकृष्ण का सुख और अपना भी सुख- उनमें इस प्रकार का उभय-सुखी भाव बना रहता है; इसलिये उनकी इस रति का नाम समज्जसा है। श्रीगोपांगना का प्रेम साक्षात् कौस्तुभमणि के सदृश है। चिन्ता मणि तो दस-बीस भी मिल सकती हैं, पर कौस्तुभमणि तो एक ही है और वह केवल श्रीभगवान के कण्ठ का ही भूषण है, वह दूसरी जगह कहीं भी नहीं मिलती। इसी प्रकार श्रीगोपांगना की प्रीति भी श्रीकृष्ण की मधुर लीला स्थली व्रज के सिवा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। ऐसा प्रेम श्रीगोपांगना ही जानती है, कर सकती है और यह प्रेम इस प्रेम के एक मात्र पात्र श्रीव्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर मुरलीमनोहर गोपी वल्लभ श्रीकृष्ण के प्रति ही हो सकता है। इस दिव्य प्रेम-सुधा-रस का अनन्त अगाध समुद्र नित्य-नित्य लहराता रहता है- गोपी हृदय में। इसी से वह अनुपमेय, अतुलनीय और अप्रमेय है। |
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