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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
प्रेम-तत्त्वप्रेमाधीन भगवान
भक्ति के विभिन्न स्वरूपों में प्रेम-भक्ति का स्थान
चित्त वृत्ति का निरन्तर अविच्छिन्न रूप से अपने इष्ट स्वरूप श्रीभगवान में लगे रहना अथवा भगवान में परम अनुराग या निष्काम अनन्य प्रेम हो जाना ही भक्ति है। भक्ति के अनेक साधन हैं, अनेकों स्तर हैं और अनेकों विभाग हैं। ऋषियों ने बड़ी सुन्दरता के साथ भक्ति की व्याख्या की है। पुराण, महाभारत, रामायणादि इतिहास और तन्त्र-शास्त्र भक्ति के वर्णन से भरे हैं। ईसाई, मुसलमान और अन्यान्य मतावलम्बी जातियों में भी भक्ति की बड़ी सुन्दर और मधुर व्याख्या और साधना है। हमारे भारतीय शैव, शाक्त और वैष्णव सम्प्रदाय तो भक्ति साधना की ही जयघोषणा करते हैं। वस्तुतः भगवान जैसे भक्ति से वश होते हैं, वैसे और किसी भी साधन से नहीं होते। भक्ति की तुलना भक्ति से ही हो सकती है। |
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