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श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
उत्तमा भक्ति
जिनके साधारण सौन्दर्य और माधुर्य ने बड़े-बड़े महात्मा, ब्रह्मज्ञानी और तपस्वियों के मन को बरबस खींच लिया, जिनकी सबसे बढ़ी हुई अद्भुत, अनन्त प्रभुतामयी पूर्ण ऐश्वर्य शक्ति ने शिव-ब्रह्मा तक को चकित कर दिया, उन सबके मूल आश्रय तत्त्व स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का जो अनुकूलतायुक्त अनुशीलन होता है, उसी का नाम उत्तमाभक्ति है। अनुकूलता का तात्पर्य है- जो कार्य श्रीकृष्ण को रुचिकर हो, जिससे श्रीकृष्ण को सुख हो; शरीर, वाणी और मन से निरन्तर वही कार्य करना। श्रीकृष्ण का अनुशीलन तो कंस आदि में भी था, परंतु उनमें उपर्युक्त आनुकूल्य नहीं था। श्रीकृष्ण से यहाँ श्रीराम, नृसिंह, वामन आदि सभी भगवत्स्वरूप लिये जा सकते हैं; परंतु यहाँ श्रीकृष्णस्वरूप को सामने रखकर ही चर्चा की गयी है, इसीलिये यह कहा गया है कि भगवान श्रीकृष्ण स्वरूप के निमित्त की जाने वाली और तत्सम्बन्धी अनुशीलन रूपा भक्ति ही मुख्य है। भक्ति की उपाधियाँभक्ति में दो उपाधियाँ हैं -
अन्याभिलाषा भोग-कामना और मोक्ष-कामना के भेद से दो प्रकार की होती है और ज्ञान, कर्म तथा योग के भेद से भक्ति का आवरण तीन प्रकार का होता है। यहाँ ज्ञान से निगुणतत्त्वपरक ‘अहं ब्रह्मास्मि’ रूप, ज्ञान, योग से भजन रहित हठ योगादि और कर्म से भक्ति रहित याग-यज्ञादि शास्त्रीय और भोगादि की प्राप्ति के लिये किये जाने वाले लौकिक कर्म समझने चाहिये। जिस ज्ञान से भगवान के मंगलमय दिव्य स्वरूप और भजन का रहस्य जाना जाता है, जिस योग से चित्त की वृत्ति भगवान के स्वरूप, गुण, लीला, चरित्र आदि में तल्लीन हो जाती है और जिस कर्म से भगवान की सेवा बनती है, वे ज्ञान-योग-कर्म तो भक्ति में सहायक हैं, भक्ति के ही अंग हैं। वे भक्ति की उपाधि नहीं हैं। |
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- ↑ श्रीभक्तिरसामृतसिन्धु
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