श्रीराधा माधव चिन्तन -हनुमान प्रसाद पोद्दार
आज श्रीराधाष्टमी-महोत्सव है, अतएव श्रीराधा का किंचित स्मरण करके जीवन को धन्य करने के लिये उन्हीं की पवित्र प्रेरणा के अनुसार कुछ शब्दों का संकलन किया जा रहा है। श्रीराधातत्त्व तथा राधास्वरूप नितान्त दुर्गम है, अथाह समुद्र है। इसमें डुबकी लगाकर थाह पाने की चेष्टा करने वाले बड़े-बड़े गम्भीर तत्त्वज्ञ योगी महापुरुष भी अपने को सर्वथा असमर्थ पाकर निराश बाहर निकल आते हैं, फिर विषय-विलास-विभ्रम-रत मोहावृत इन्द्रियासक्त मनुष्य के लिये इसका सर्वथा अगम्य तथा दुर्लभ होना तो स्वाभाविक है। विशुद्ध कर्मराज्य, भक्ति- (साधन रूप भाव) -राज्य और ज्ञान राज्य के परे का जो अचिन्त्य भाव राज्य या प्रेम राज्य है, जिसमें अन्य किसी भाव का संश्लेष भी नहीं है तथा न जिसमें भोग-मोक्ष की कामना-गन्ध-लेशयुक्त किसी भी उच्च-से-उच्च स्तर पर पहुँचे हुए देवाधिदेव या ऋषि-मुनि का ही प्रवेश है, वह श्रीराधा-माधव का प्रेम भाव या प्रेम स्वरूप है। यहीं पर अव्यय ब्रह्म, दिव्य अमृत, नित्य प्रेम-धर्म और एकान्तिक सुख के प्रतिष्ठारूप पूर्णपुरुषोत्तम आत्माराम श्रीकृष्ण, जिनकी आत्मा श्रीराधा हैं और जो निरन्तर उनमें रमण करने के कारण ही ‘आत्माराम’ कहलाते हैं, सच्चिदानन्दघन दिव्य प्रेम रस विग्रह अपनी अभिन्नस्वरूपा श्रीराधिका के साथ नित्य-लीला विहार करते हैं।
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