श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप 9

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप


इसी आचार्य-परम्परा में जगद्गुरु श्रीनिम्बार्काचार्यपीठाधीश्वर श्रीवृन्दावनदेवाचार्यजी महाराज ने अपने ‘श्रीगीतामृतगंगा-व्रजवाणी’ में प्रेम के दिव्य स्वरूप का जो असमोध्र्व वर्णन किया है, वह वस्तुतः अतीव विलक्षण है। उक्त ग्रन्थ के कतिपय मंजुल पद्यों के अनुशीलन से स्वतः प्रेम-प्राखर्य का बोध हो सकेगा-

प्रेम को रूप सु इहै कहावै
प्रीतम के सुख सुख अपनो दुख, बाहिर होत न नेक लखावै।।
गुरुजन बरजन तरजन ज्यों-ज्यों, त्यों-त्यों रति नित-नित अधिकावै।
दुरजन घर-घर करत बिनिंदन, चंदन सम सीतल सोउ भावै।।
पलक औटहू कोटि बरस के, छिनक ओटि सुख कोटि जनावै।
बृन्दावन-प्रभ्ज्ञु नेही की गति देही त्यागि धरैं सोइ पावै।।[1]

बसी तुत मूरति नैंननि मेरैं।
कैसैं चैंन परैं प्यारी अब, भली-भाँति बिनु हेरैं।।
तनक किर किरी खरकति सो सतो, नख-सिख भूषन तेरैं।
बृन्दावन प्रभु नेह अजन ते, खरकति और घनेरैं।।[2]

तुम बिन दृगन सुहात न और।
नींद रैन दिन बसी रहत ही, वाहू को नहीं ठौर।।
अब कैसें फीको जग भावत चाखे, रूप सनौनै कौर।
बृन्दावन प्रभु सुरझत नाहीं, परे प्रेम के झोर।।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. घाट 4, पद 35
  2. घाट 4, पद 48
  3. घाट 4, पद 57

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