गीता और प्रेम तत्त्व

गीता और प्रेम तत्त्व

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारम्भ और पर्यवसान भगवान की शरणागति में ही है। यही गीता का प्रेम तत्त्व है। गीता की भगवच्छरणा गति का ही दूसरा नाम ‘प्रेम’ है। प्रेममय भगवान अपने प्रियतम सखा अर्जुन को प्रेम के वश हो कर वह मार्ग बतलाते हैं, जिसमें उसके लिये एक प्रेम के सिवा और कुछ करना बाकी रह ही नहीं जाता।

कुछ लोगों का कथन है कि श्रीमद्भगवद्गीता में प्रेम का विषय नहीं है। परंतु विचार कर देखने पर मालूम होता है कि ‘प्रेम’ शब्द की बाहरी पोशाक न रहने पर भी गीता के अन्दर प्रेम ओत-प्रोत है। गीता भगवत-प्रेम-रस का अगाध समुद्र है। प्रेम वास्तव में बाहर की चीज होती भी नहीं, वह तो हृदय को ही मिलता है और हृदय से ही किया जाता है। जो बाहर आता है, वह तो प्रेम का बाहरी ढाँचा होता है, हनुमानजी महाराज भगवान श्रीराम का संदेश श्री सीताजी को इस प्रकार सुनाते हैं-
तत्त्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा।
सो मनु सदा रहत तोहि पाही। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं।।

प्रेम हृदय की वस्तु है, इसीलिये वह गोपनीय है। गीता में भी प्रेम गुप्त है। वीरवर अर्जुन और भगवान श्रीकृष्ण का सख्य-प्रेम विश्व-विख्यात है। आहार-विहार, शय्या-क्रीड़ा, अन्तःपुर-दरबार तथा वन-प्रान्त-रणभूमि - सभी में दोनों को हम एक साथ पाते हैं। जिस समय अग्निदेव अर्जुन के समीप खाण्डव दाह के लिये अनुरोध करने आते हैं, उस समय उन्हें भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन जल विहार करने के बाद प्रमुदित मन से एक ही आसन पर बैठे हुए मिलते हैं। जब संजय भगवान श्रीकृष्ण के पास आते हैं, तब उन्हें अर्जुन के साथ एक ही आसन पर अन्तःपुर में द्रौपदी और सत्यभामा सहित विराजित पाते हैं। अर्जुन- ‘विहारशय्यासनभोजनेषु’ कहकर स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं।
अधिक क्या, खाण्डव-वन का दाह कर चुकने पर जब इन्द्र प्रसन्न हो कर अर्जुन केा दिव्यास्त्र प्रदान करने का वचन देते हैं, तब भगवान श्रीकृष्ण भी कहते हैं कि ‘देवराज! मुझे भी एक चीज दो और वह यह कि अर्जुन के साथ मेरा प्रेम सदा बना रहे’-

‘वासुदेवाऽपि जग्राह प्रीतिं पार्थेन शाश्वतीम्।’[1][2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत. 1।233।13
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 434 |

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