सखा सत्कार

सखा-सत्कार

लीला-दर्शन


कन्हाई की वर्षगाँठ है। इस जन्मदिन का अधिकांश संस्कार पूर्ण हो चुका है। महर्षि शाण्डिल्य विप्रवर्ग के साथ पूजन-यज्ञादि सम्पन्न कराके, सत्कृत होकर जा चुके हैं। गोप एवं गोपियों ने अपने उपहार व्रजनवयुवराज को दे दिये हैं। अब सखाओं की बारी है। कन्हाई के सखा भी उपहार देंगे; किंतु ये गोपकुमार तो अपने अनुरूप ही उपहार देने वाले हैं। रत्नाभरण, मणियाँ, बहुमूल्य वस्त्र, नाना प्रकार के खिलौने तो बड़े गोप, गोपियाँ-दूरस्थ गोष्ठों के गोप भी लाते हैं; किंतु गोपकुमारों का उपहार इन सबसे भिन्न है। ‘कनू! मैं भी तुझे टीका लगाऊँगा।’ यह आया भद्र। यह श्याम के जन्मदिन पर सदा ऐसे ही आता है- ‘मेरे समीप तो कुछ है नहीं; तेरी ही कामदा के गोबर का टीका लगा दूँ तुझे?’

‘सच! लगा!’ अब यह नन्दनन्दन तो मानो हर्ष से विभोर हो उठा है। इसे लगता है कि इतनी महत्त्वपूर्ण बात महर्षि शाण्डिल्य तक को स्मरण नहीं आयी और उसका भद्र कितना बुद्धिमान है। भला, गोपकुमार का तिलक गोमय के बिना कैसे सम्पूर्ण हो सकता है? आज कन्हाई सिर से चरणों तक नवीन रत्नाभरणों से सज्जित है। अलकों में अनेक रंगों के रत्न-मणियों की माला है। रत्न-खचित नन्हा-सा मुकुट है। भाल पर केसर की खौर के मध्य महर्षि के द्वारा लगाया कुंकुम-तिलक है, जिस पर अक्षत लगे हैं। भद्र ने अक्षतों के नीचे ठीक भ्रूमध्य में अपनी अनामिका से एक छोटा बिन्दु गोबर का लगा दिया।

‘बाबा! यह सब भूल ही गये थे।’ कृष्ण अब बाबा, ताऊ, चाचा और मैया सबको दौड़ा-दौड़ा दिखला रहा है- भद्र ने लगाया है- मेरे भद्र ने। अब यह क्रम तो चल पड़ा। तोक कहीं से एक तिरंगी गंजा लाया है- श्वेत, कृष्ण और अरुण तीनों रंग समान हैं इसमें तथा कन्हाई उसे कर पर रखे सबको दिखलाता घूम रहा है। इसके नेत्र, इसका उल्लास भरा स्वर कहता है- ‘ऐसी अद्भुत वस्तु है कहीं किसी के समीप? कोई रत्न इसकी तुलना करने योग्य है?’ कोई नन्हा मयूरपिच्छ लाया है और कोई तीन-चार छोटे किसलय। सुबल कहीं से पाँच रंगों से अंकित श्वेत पुण्डरीक पा गया है। सब फल, पुष्प, पत्ते या पिच्छ ही लाये हैं, किन्तु कन्हाई तो एक-एक सखा का उपहार पाकर ऐसा उल्लसित होता है, ऐसा उछलता और सबको दिखाने दौड़ता है जैसे त्रिभुवन का दुर्लभतम रत्न इसे मिल गया हो।

कृष्णचन्द्र इतना उल्लसित तो किसी भी गोप या गोपी के उपहार को पाकर नहीं हुआ। सब गोप, गोपियाँ, दूरस्थ गोष्ठों से आये गोपनायक महीनों से इसी अन्वेषण में लगे थे नन्दनन्दन को क्या दें इस दिन, जिसे पाकर श्याम प्रसन्न हो; किंतु यह नील-सुन्दर जैसे नाचता, कूदता, उल्लास भरा दिखलाता फिर रहा है, अपने सखाओं का उपहार- कोई अमूल्य मणि या वस्त्र कहाँ इसका सहस्रांश भी हर्ष इसमें ला सका।[1]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 208 |

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