संत सुन्दरदास जी की प्रेमोपासना

‘संत सुन्दरदासजी की प्रेमोपासना’

डा. श्री नरेशजी झा, शास्त्र चूडामणि

हिन्दी-साहित्य के भक्तिकाल में महाकवि गोस्वामी संत तुलसीदास जी के समकालीन(वि. सं. 1653-1746) कविवर संत सुन्दरदासजी का महिमा मण्डित स्थान है। ये विख्यात संत दादूजी के पट्ट शिष्यों में अग्रणी विद्वान शिष्य थे। इन्होंने काशी में ही(वि. सं. 1664-1682) रहकर विविध शास्त्रों का गहन अध्ययन किया था। ये मूलतः द्यौसा (जयपुर-राजस्थान) - के निवासी थे। संस्कृत शास्त्रों के विद्वान होते हुए भी इन्होंने सामयिक परम्परा के अनुसार अपनी समस्त रचनाएँ लोकभाषा (हिन्दी, राजस्थानी, व्रज आदि) - में ही की हैं। संत-साहित्य की अभिवृद्धि में इनका प्रमुख योगदान है। इनकी रचनाओं में ज्ञान समुद्र, सर्वांग योग प्रदीपिका, पञ्चेन्द्रिय-चरित्र आदि सुप्रसिद्ध हैं।
इन ग्रन्थों में मानव के आध्यात्मिक उत्थान के लिये नवधा भक्ति सहित अनेक आवश्यक अंगों की भी विस्तृत विवेचना की गयी है। इनमें परा-भक्ति का वर्णन तो सर्वातिशायी है। विद्वानों का मत है कि भाषा-साहित्य में ऐसा प्रतिपादन विरला ही प्राप्त होता है। ‘मिलि परमातम सों आतमा परा भक्ति सुन्दर कहै’ यह भक्ति-विज्ञान की पराकाष्ठा है। इसी नवधा भक्ति के अन्तर्गत ‘प्रेमलक्षणा’ भक्ति कही गयी है। यह प्रेमलक्षण-भक्ति भगवत्प्रेम के अन्तर्गत आती है।
अतः प्रसंगोपास इसका स्वरूप ‘ज्ञानसमुद्र’ से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। वस्तुतः संत कवि सुन्दरदास जी का यह ग्रन्थ विविध छन्दों में ग्रथित संत-साहित्य का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। संत सुन्दरदासजी के ग्रन्थों में सब कुछ सुन्दर-ही-सुन्दर है। देखिये प्रेमलक्षणा-भक्ति के स्वरूप में ज्ञानसमुद्र का एक उदाहरण-

श्री गुरुरुवाच
सिष्य सुनाऊँ तोहि, प्रेमलच्छना भक्ति कौं।
सावधान अब होइ, जो तेरैं सिर भाग्य हैं।।
प्रेम लग्यो परमेस्वर सौं, तब भूलि गयो सब ही घरबारा।
ज्यौं उनमत्त फिरै जित ही तित, नैकु रही न सरीर सँभारा।।
साँस उसास उठैं सब रोम, चलै दृग नीर अखंडित धारा।
सुन्दर कौन करे नवधा बिधि, छाकि परयौ रस पी मतवारा।।
न लाज काँनि लोक की, न बेद कौ कह्यौ करे।
न संक भूत प्रेत की, न देव यक्ष तें डरे।।
सुनै न कौन और की, द्रसै न और इच्छना।
कहै न कछू और बात, भक्ति प्रेम लच्छना।।
निस दिन हरि सौं चित्तासक्ती, सदा ठग्यौ सो रहिये।
कोउ न जानि सकै यह भक्ती, प्रेमलच्छना कहिये।।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 427 |

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