व्रज रस में प्रेम वैचित्त्य

व्रज रस में प्रेम-वैचित्त्य

श्रीश्याम जी भाई

सघन वनों में भटकती श्री मीराजी, नयनों में प्राण सखा श्याम सुन्दर की खोज, वर्षा के दिन और यह मदहोश, मदमस्त भटकन - निर्जन स्थानों में, बीहड़ वनों में तथा वही कण्टकाकीर्ण मार्ग - वही उन्मादिनी मीरा।
कितना कष्ट होता होगा इन्हें? क्या कृष्ण-प्रेम का यह अर्थ होना चाहिये?
एक बार प्रणय-प्रणव श्रीकृष्ण ने अपने किसी कोमल-हृदय स्वजन को इसका उत्तर दिया था - ‘मैं पीछे-पीछे रहकर मीरा का पथ प्रशस्त करता हूँ, उसका अनुगमन करता हूँ, उसके यात्रा-पथ पर दृष्टि डालता हूँ तो उस पथ के कंकड़-काँटे सुकोमल बन जाते हैं, किसी भी मार्ग में मीरा के पाँवों में एक काँटा भी नहीं चुभने देता, कहीं भी कोई कष्ट नहीं होने देता - न वन-पर्वतों में, न पथ-प्रान्तों में।
उनकी वार्ता ठीक निकली। सचमुच आज वे ऐसा ही कर रहे थे। मीराजी के पीछे कभी दायें से, कभी बायें से स्नेहासिक्त नयनों से उन्हें निहारते चल रहे थे। अद्भुत चमत्कार है उनकी दृष्टि में। मार्ग के कठोर कण्टक कोमल पुष्पों में परिणत होते जाते हैं। मीराजी के यात्रा मार्ग के फूल खिलते जाते हैं और मीराजी को पता नहीं, होश नहीं। ओह, व्रज के रसीले ठाकुर! तुम्हारी दृष्टि का यह प्रभाव है जड़ पदार्थों पर! तो चेतन प्रेमियों पर कैसा होता होगा? साँवरे-सलोने! नेक सोचो तो सही।
पर एक बात है - मीराजी की विरह-वेदना तो वही बनी रही।
‘नहीं’, आश्वासन के स्वर में वे स्वर कुशल बोले - ‘यह वैसी विरह-वेदना नहीं है। यह तो सर्वथा भिन्न प्रकार की है मधुर है, मधुराति मधुर है। इसमें मिलन की सुखद अनुभूति बनी रहती है, हिय - प्राणों में दिव्यानन्द संचरित रहता है। ‘मैं साथ रहता हूँ, साथ होता हूँ’ - यह प्रतीति उसे बनी रहती है, यह प्रतीति ही तो उसकी जीवनदायिनी शक्ति है, तभी तो इतना पर्यटन, इतना परिभ्रमण कर पाती है मेरी मीरा।’
कहीं यह सब आश्वासन मात्र ही तो नहीं?
(उत्तर में) दृश्य-परिवर्तन-मेघमालाओं के मध्य से झाँकता नील नभ, प्रकृति का परम मनोहर सुन्दर दृश्य, स्वतः निविड़ निभृत निकुञ्जों का निर्माण, सघन वृक्षों के मध्य झूमता एक हिंडोला-
अकस्मात मीराजी के पीछे से आते हैं उनके प्राण-प्रियतम-अंक में, अंग में, समाहित कर लेते हैं उन्हें। बरजोरी अपने साथ उस हिंडोले में बिठाते हैं। इस सम्मिलन-सुख में शेष सब अशेष हो जाता है, विस्मृत हो जाता है। युगों की तृषा का शमन हुआ, एक बार फिर प्राण सुशीतल रस से सिंचित हुए।
तो फिर-
लाड़ली किशोरी श्रीराधा को भी विरह में मिलन-सुख प्रतीत होता है और मिलन में विरह-वेदना का दुःख भी शून्य-न्यून नहीं होता।
कैसा मोहक है यह प्रेम-वैचित्त्य।
अहैतुक बन्धो! क्या कभी हमें इसकी छाया का भी स्पर्श प्राप्त होगा?[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 301 |

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