श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप 3

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप


इसी प्रकार श्रीनिम्बार्क भगवान से परवर्ती पूर्वाचार्य-चरणों के द्वारा प्रणीत ‘श्रीकृष्णस्तवराज’ के इन श्लोकों से भी प्रेम का उत्कृष्टतम वर्णन परम मननीय है-

ब्रह्मरुद्रसुरराजस्वर्चितं चर्चितं च रमयांकमालया।
चर्चितं च नवगोपबालया प्रेमभक्तिरसशालिमालया।।
त्वय्यणुत्वसमुमत्वभागिनी सर्वशक्तिबलयोगशालिनी।
भक्तिरस्तु मम निश्चला हरे कृष्ण केशव महत्तमाश्रये।।[1]

विधि-रुद्रेन्द्रादि सुरवृन्दों द्वारा समर्चित, दिव्य विशाल माला से सुशोभित, श्रीलक्ष्मी जी द्वारा परिसेवित एवं प्रेमा-भक्तिरस से सुस्निग्ध श्रीकृष्णरूपी सुकण्ठाहारविभूषित नित्यनवनवायमान व्रजेश्वरी श्रीराधा से परम शोभायमान श्यामसुन्दर भगवान श्रीकृष्ण के सतत समर्चनीय श्रीयुगलचरणाम्बुजों की मैं शरण ग्रहण कर रहा हूँ।

सृष्टि-रचयिता श्रीब्रह्मा, संहारकर्ता श्रीशंकर आदि देवों के भी जो जनक अर्थात उत्पादक हैं, शरणागतजनों के पापपुन्जों का परिहार करने वाले परमानन्दस्वरूप सर्वेश्वर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण! आप अणु स्वरूपात्मक जीवात्मा और महत्त्व परिमाणरूप आकाशप्रभृति पदार्थों में अन्तर्यामी स्वरूप में अवस्थित हैं। इसीलिये ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ इत्यादि ये श्रुतिवचन आपको सूक्ष्मातिसूक्ष्म और महान से भी परम महान अभिव्यक्त करते हैं तथा आप में ज्ञान, क्रिया, बल आदि सम्पूर्ण शक्ति-वैभव संनिविष्ट है। अतएव सभी उत्तमोत्तम देववृन्द आपका ही समाश्रय ग्रहण करते हैं। ऐसे सर्वाधार, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिसम्पन्न आपके मंगल पदाम्बुजों में मेरी अविचल प्रगाढ़ प्रेमा-भक्ति अवस्थित रहे, यही एकमात्र स्पृहा है।

आद्याचार्य श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य के आचार्य-परम्परानुवर्ती पूर्वाचार्यप्रवरों ने अपने हिन्दी-व्रज-वाणी-साहित्य में जो प्रेम का अनिर्वचनीय निरूपण किया है, वह परम मननीय है। श्रीनिम्बार्काचार्यपीठाधीश्वर जगद्गुरु श्रीश्रीभट्टाचार्य जी महाराज ने अपनी व्रजभाषा की आदि वाणी में प्रेम का परमोत्कृष्ट स्वरूप प्रतिपादित किया है, वह यथार्थतः हृदय में सर्वदा समुपासनीय है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्लोक 5, 7

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