कन्हाई की तन्मयता

कन्हाई की तन्मयता

लीला-दर्शन


यह कन्हाई अद्भुत है, जहाँ लगेगा, जिससे लगेगा, उसी में तन्मय हो जायगा और उसे अपने में तन्मय कर लेगा।

श्रुति कहती है- ‘रूप रूपं प्रतिरूपो बभूव।-़’[1]

वह परमात्मा] ही जड़-चेतन, पानी-पत्थर, पेड़-पौधे, अग्नि-वायु-आकाश, पशु-पक्षी, कीड़े-पतंगे, सूर्य-चन्द्र -तारे सब बन गया है, किंतु मैं उस किसी अलक्ष्य, अगोचर, अचिन्त्य परमात्मा की बात नहीं करता हूँ। मैं करता हूँ इस अपने नटखट नन्हे नन्द-नन्दन की बात। यह केवल स्वयं तन्यम नहीं हो जाता, दूसरे को भी अपने में तन्मय कर लेता है। ऐसा नहीं है कि यह केवल श्रीकीर्तिकुमारी या दाऊ दादा में तन्मय- एकरूप हो जाता हो। यह क्या अपनी वंशी अधरों पर रखता है तो स्वर से कम एकाकार होता है? अथवा किसी गाय, बछड़े-बछड़ी को दुलराने-पुचकारने लगता है तो इसे अपनी कोई सुध-बुध रहती है। यह सखाओं से ही नहीं, मयूर-मेढक-कपि, शशक से भी खेल में लगता है तो तन्मय। गाने, नाचने, कूदने में ही नहीं, चिढ़ाने में भी लगता है तो तन्मय ही होकर। इसे आधे मन से कोई काम जैसे करना ही नहीं आता है।

रही दूसरों की बात, सो मैया यशोदा का लाडला समाने हो तो क्या किसी को अपने शरीर का स्मरण रह सकता है? यह तो आते ही सबको अपने में खींचता है, अपने से एक करता है, अन्ततः कृष्ण है न! अब आज की ही बात है, कन्हाई यमुना के तट पर अकेला बैठा गीली रेत से कुछ बनाने में लगा था। बार-बार नन्हें करों से रेत उठाता था और तनिक-तनिक बहुत सँभाल कर धरता था! पता नहीं कैसी रेत है कि टिकती ही नहीं। गिर-गिर पड़ती है रेत; किंतु कन्हाई कहीं ऐसे हारने वाला है, वह लगा है अपने महानिर्माण में। लगा है-तन्मय है। पता नहीं, सखा कब चले गये, दाऊ दादा भी चला गया। सबने पुकारा, बुलाया, कहा; किंतु जब यह सुनता ही नहीं तो सब खीझकर चले गये कि अकेला पड़ेगा तो स्वयं दौड़ा आयेगा; किंतु इसे तो यह भी पता नहीं कि आसपास कोई सखा नहीं है, यह अकेला है।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. बृहदा. 2।5।19
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 238 |

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