संत हृदय वसुदेव जी का पुत्र प्रेम

संत हृदय वसुदेव जी का पुत्र प्रेम


यदुवंश में शूरसेन नामक एक पराक्रमी क्षत्रिए हुए, उनकी मारिषा नाम की पत्नी थी। शूर के मारिषा के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न हुए। उन दसों में वसुदेव जी सबसे श्रेष्ठ थे। इनका विवाह देवक की सात कन्याओं से हुआ। रोहिणी भी इनकी पत्नी थीं। देवकीजी देवक की सबसे छोटी कन्या थीं। जब वसुदेवजी देवकी के साथ विवाह करके आ रहे थे तो देवक के बड़े भाई उग्रसेन का पुत्र कंस अपनी बहिन की प्रसन्नता के लिए स्वयं रथ हाँक रहा था, उसी समय आकाशवाणी हुई - ‘कंस! इसी देवकी का आठवाँ गर्भ तुझे मारेगा।’ कंस मृत्यु भय से काँप गया और वहीं देवकीजी को मारने के लिये तैयार हो गया। वसुदेवजी ने उसे बहुत समझाया, किंतु वह माना ही नहीं। तब वसुदेवजी ने सोचा, इस समय को टाल देना ही बुद्धिमानी है। इसलिये वसुदेवजी ने कहा - ‘अच्छा, तुम्हें इसके पुत्र से डर है न? तुम इसे मत मारो, इसके सब पुत्र मैं तुम्हें लाकर दे दूँगा।’

कंस को चाहे और किसी पर विश्वास न रहा हो, किंतु वह यह जानता था कि वसुदेवजी कभी झूठ नहीं बोलेंगे, ये जो कहेंगे वही करेंगे। उसने वसुदेव-देवकी को छोड़ दिया। समय पाकर उनके एक पुत्र हुआ और वसुदेव जी अपने प्रतिज्ञानुसार उसे कंस के यहाँ लेकर पहुँच गये। अपने हृदय के टुकड़े को वे मरवाने के लिये क्यों ले गये? बाप अपने प्यारे पुत्र को अपने हाथ से मरवाने के लिये कैसे ले गया? इस पर व्यास जी कहते हैं -

किं दु:सह नु साधूनां विदुषां किमपेक्षितम्‌।
किमकार्यं कदर्याणां दुस्त्यजं किं धृतात्मनाम्‌॥[1]

वे संत थे, उनके लिये सब कुछ सह्य था। वे धैर्यवान थे, सत्य के पीछे सब कुछ छोड़ सकते थे। कंस ने उनकी सत्यता पर सन्तुष्ट होकर एक बार लड़के को लौटा दिया। दुबारा जब उसने मँगाया तब फिर लेकर पहुँचे। उसने इन्हें कारागार में रखा, कारागार में रहे; नाना प्रकार के कष्ट दिये, उन्हें शान्तिपूर्वक सहन किया। अन्त में कारागार में ही भगवान का प्रादुर्भाव हुआ। भगवान की आज्ञा हुई, मुझे गोकुल पहुँचा दो। कंस से बढ़कर भगवान की आज्ञा थी। भाद्रपद की अँधेरी रात्रि में आधी रात के समय बढ़ती हुई यमुना जी में सद्योजात शिशु को लेकर वसुदेवजी उनकी आज्ञा का स्मरण करके घुस गये। यमुनाजी भी हट गयीं। सब विघ्न दूर हुए। भगवान को सकुशल गोकुल पहुँचा कर तथा बदले में यशोदा की कन्या को लेकर वे वापस आ गये। किवाड़ ज्यों-के-त्यों फिर बंद हो गये, ताले लग गये। हाथों में फिर ज्यों-की-त्यों हथकड़ियाँ पड़ गयीं। कंस आया और उसने लड़की को पत्थर पर पछाड़ कर मार डालने का उद्योग किया, किंतु वह तो साक्षात योग माया थी, आकाश में अपने स्वरूप से प्रकट हो कर उसने कहा - ‘कंस! तुम्हें मारने वाला प्रकट हो गया है।’

भगवान समीप में ही वृन्दावन में रहते थे। प्रत्येक माता-पिता का मन इस बात के लिये लालायित रहता है कि अपने हृदय के टुकड़े को एक बार जी भर कर इन आँखों से देख लें, किंतु वसुदेवजी ने ऐसा साहस कभी नहीं किया। छिपकर, आँख बचाकर भगवान की इच्छा के विरुद्ध मोहवश वहाँ जायँगे तो साधुता में बट्टा लगेगा। बात बिगड़ जायगी। जब उनकी इच्छा होगी, जब वे चाहेंगे, स्वयं आ जायेंगे या बुला लेंगे। वे उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा में चुपचाप बैठे हुए कंस पालित मथुरा में तप करते रहे-[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।1।58
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 368 |

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