गोस्वामी श्रीहित हरिवंशचन्द्र जी

गोस्वामी श्रीहित हरिवंशचन्द्र जी


रसिक भक्ति शिरोमणि गोस्वामी श्री हितहरिवंश चन्द्र महाप्रभुजी का जन्म मथुरा के निकट बादग्राम में वि. संवत 1559 वैशाख शुक्ला एकादशी को हुआ था। इनके पिता का नाम श्री व्यासजी मिश्र तथा माता का श्री तारोदेवी थी। श्री व्यासजी मिश्र के नौ भाई थे, जिनमें सबसे बड़े श्री केशवदासजी तो संन्यास ग्रहण कर चुके थे। उनके संन्यासाश्रम का नाम श्री नृसिंहाश्रमजी था। शेष आठ भाइयों के केवल यही एक व्यास-कुलदीपक थे, इसलिये ये सभी को प्राणों से बढ़ कर प्रिय थे और इसी से इनका लालन-पालन भी बड़े लाड़-चाव से हुआ था। ये बड़े ही सुन्दर थे और शिशु काल में ही ‘राधा’ नाम के बड़े प्रेमी थे। ‘राधा’ सुनते ही ये बड़े जोर से किलकारी मारकर हँसने लगते थे। कहते हैं कि छः महीने की अवस्था में ही इन्होंने पलने पर पौढ़े हुए ‘श्रीराधासुधानिधि’ स्तव का गान किया था, जिसे आपके ताऊ स्वामी श्री नृसिंहाश्रमजी ने लिपि बद्ध कर लिया था।

वस्तुतः ‘राधासुधानिधि’ भक्ति पूर्ण श्रृंगार रस का एक अतुलनीय ग्रन्थ है। बड़ी ही मनोहर भाव पूर्ण कविता है। इसमें आचार्य ने अपनी परमाराध्या वृषभानु कुमारी श्री राधा जी के विशुद्ध प्रेम का बड़ी ही ललित भाषा में चित्रण किया है। इसमें आरम्भ से अन्त तक केवल विशुद्ध प्रेम की ही झाँकी है।

इनके बालपन की कुछ बातें बड़ी ही विलक्षण हैं। एक दिन ये अपने कुछ साथी बाल सखाओं के साथ बगीचे में खेल रहे थे। वहाँ इन्होंने दो गौर-श्याम बालकों केा श्रीराधा मोहन के रूप में सुसज्जित किया। फिर कुछ देर बाद दोनों के श्रृंगार बदल कर श्रीराधा को मोहन तथा श्री मोहन को श्रीराधा के रूप में परिणत कर दिया और इस प्रकार वेश-भूषा बदलने का खेल खेलने लगे।

प्रातः काल का समय था। इनके पिता श्री व्याजी अपने सेव्य श्री राधाकान्तजी का श्रृंगार करके मुग्ध हो कर युगल-छवि के दर्शन कर रहे थे। उसी समय आकस्मिक परिवर्तन देखकर वे चैंक पड़े। उन्होंने श्री विग्रहों में श्रीराधा के रूप में श्रीकृष्ण को और श्रीकृष्ण के रूप में श्रीराधा को देखा। सोचा वृद्धावस्था के कारण स्मृति नष्ट हो जाने से श्रृंगार धराने में भूल हो गयी है। क्षमा-याचना करके उन्होंने श्रृंगार को सुधारा, परंतु अपने-आप वह श्रृंगार भी तुरंत ही बदलने लगा। तब घबरा कर व्यासजी बाहर निकले। सहसा उनकी दृष्टि बाग की ओर गयी, देखा - हरिवंश अपने सखाओं के साथ खेल-खेल में वही स्वरूप-परिवर्तन कर रहा है। उन्होंने सोचा इसकी सच्ची भावना का ही यह फल है। निश्चय ही यह कोई असाधारण महापुरुष है।

एक बार श्री व्यासजी ने अपने सेव्य श्री ठाकुरजी के सामने लड्डू का भोग रखा; इतने में देखते हैं कि लड्डुओं के साथ फल-दलों से भरे बहुत-से दोने थाल में रखे हैं। इन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और उस दिन की बात याद आ गयी। पूजन के बाद इन्होंने बाहर जाकर देखा तो पता लगा कि हरिवंशजी ने बगीचे में दो वृक्षों को नीले-पीले पुष्पों की मालाओं से सजाकर युगल-किशारे की भावना से उनके सामने फल-दाल का भोग रखा है। इस घटना का भी व्यासजी पर बड़ा प्रभाव पड़ा।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 464 |

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