श्रीशुकदेव जी की माधुर्योपासना

श्रीशुकदेव जी की माधुर्योपासना


स्वसुखीनिभृतचेतास्तद्व्युदस्तान्यभावोऽप्यजितरुचिरलीलाकृष्टसारस्तदीयम्।
व्यतनुत कृपया यस्तत्त्वदीपं पुराणं तमखिलवृजिनघ्नं व्याससूनु नतोऽस्मि॥[1]

श्रीशुकदेवजी महाराज अपने आत्मानंद में ही निमग्न थे। इस अखण्ड अद्वैत स्थति से उनकी भेद दृष्टि सर्वथा निवृत्त हो चुकी थी। फिर भी मुरलीमनोहर श्यामसुंदर की मधुमयी, मंगलमयी, मनोहारिणी लीलाओं ने उनकी वृत्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया और उन्होंने जगत के प्राणियों पर कृपा करके भगवत्तत्त्व को प्रकाशित करने वाले इस (श्रीमद्भागवत) महापुराण विस्तार किया। मैं उन्हीं सर्वपापहारी व्यासनंदन भगवान श्रीशुकदेवजी के चरणों में नमस्कार करता हूँ।

भक्ति का प्रमुख तत्त्व है प्रेम। [2] इसे परानुरक्ति तथा देवर्षि नारदजी परम प्रेमरूपा मानते हैं। श्रीवल्लभ 'स्नेहो भक्तिरिति प्रोक्त:' तथा श्रीवेदांतदेशिक 'परमा भक्तिरतिशयिता प्रीति:' कहकर भक्ति में अतिशय प्रेम की प्रतिष्ठा स्वीकार करते हैं। भक्त का भगवान के प्रति होने वाला गाढ़ आकर्षण 'राग' कहलाता है। प्रेमाभक्ति के मूल में राग केंद्रीय भाव है। इस राग में योग-वियोग की वृत्ति विद्यमान रहती है अर्थात मिलन होने पर बिछुड़ जाने की आशंका तथा वियोग में मिलने की उत्कण्ठा ही प्रेम है। प्रेमवृत्ति की सर्वोच्च स्थति आत्मसमर्पण में प्रकट होती है, जहाँ सौंदर्य के महासमुद्र श्रीकृष्ण में वह गोपी भाव बनकर अविच्छिन्न रूप में प्रवाहित होती रहती है। ऋग्वेद की ऋचाओं- 'पतिरिव जायामभि नो न्येतु धर्ता दिव:'[3] तथा 'जायेव पत्य उशती सुवासा:'[4] -में निहित उत्कट दाम्पत्य भाव ही माधुर्योपासना का मूलाधार कहा जा सकता है। इन मंत्रों में भक्त कहता है कि उसकी चित्तवृत्तियाँ सब कुछ छोड़कर वैसे ही परमेश्वर की ओर दौड़े, जैसे आलिंगन के लिये आतुर स्त्रियाँ पति की ओर दौड़ती हैं। उपनिषद परम तत्त्व को 'रसो वै स:' कहकर रसरूप मानता है, भक्त को यदि उस रस को प्राप्त करना है तो स्वयं को रसिक बनाना होगा। इसलिये रसिकभक्तों का सिद्धांत बन गया-

कृष्णप्रिया सखीभावं समाश्रित्य प्रयत्नत:।
तयो: सेवां प्रकुर्वीत दिवानक्तमतंद्रित:॥

श्रीशुकदेवजी वृत्रासुर के प्रसंग में स्पष्ट कहते हैं कि आदर्श भक्त को कैसा होना चाहिये और उसकी एकाग्रता, अनन्यता तथा प्रेम की प्रगाढ़ता कैसी होनी चाहिये? भगवान को प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए वृत्रासुर ने प्रार्थना की-जैसे पक्षियों के पंखहीन बच्चे अपनी माँ की राह देखते रहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माँ का दूध पीने के लिये अकुला उठते हैं और सर्वोपरि जैसे वियोगिनी प्रेमिका अपने प्रियतम से मिलने के लिये बेचैन हो उठती है, वैसे ही हे कमलनयन, रमणीयता की मूर्ति, सर्वसौभाग्यनिधि परमात्मन! तुम्हें देखने के लिये मेरे नेत्र छटपटा रहे हैं।[5]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा० 12।12।68
  2. शाण्डिल्य
  3. 10।149।4
  4. 10।71।4
  5. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 31 |

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