नन्दबाबा का बाल कृष्ण में सहज अनुराग

नन्दबाबा का बाल कृष्ण में सहज अनुराग


श्रुतिमपरे स्मृतिमपरे भारतमन्ये भजन्तु भवभीताः।
अहमिह नन्दं वन्दे यस्यालिन्दे परब्रह्म।।[1]

नन्दबाबा के सम्बन्ध में ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा गर्ग संहिता में बहुत कुछ वर्णन है, ये गोलोक में नित्य भगवान के साथ निवास करते हैं। जब भगवान सांगोपांग सविग्रह व्रज मण्डल में अवतरित हुए तब समस्त ग्वाल बाल और गोपियों ने भी व्रज मण्डल को अपनी लीला भूमि बनाया। नन्दबाबा कई भाई थे - नन्द, उपनन्द, महानन्द आदि-आदि। नन्दजी जाति के गोप थे और इनका एक समूह था, उसके ये नायक थे। प्रत्येक गोप के पास हजारों-लाखों गौएँ होती थीं, जहाँ गौएँ रहती थीं उसे गोकुल कहते थे।

इस प्रकार वह गोप समूह व्रज चौरासी कोस में रहता था। आज यहाँ है तो कल वहाँ, जिस वन में अच्छी घास हुई, गौओं के चारे और पानी का जहाँ सुभीता हुआ, वहीं छकड़ा लादकर ये सब अपना डेरा डाल देते थे। उन दिनों नन्दजी मथुरा के सामने यमुना जी के उस पार महावन नामक वन में रहते थे, महावन में ही उन दिनों नन्दबाबा का गोकुल था। वसुदेव जी से उनकी बड़ी मित्रता थी। जब कंस का अत्याचार बढ़ा तब वसुदेवजी ने अपनी रोहिणी आदि पत्नियों को नन्दबाबा के गोकुल में भेज दिया था। बलदेव जी का जन्म गोकुल में ही हुआ। भगवान को भी वसुदेवजी जन्म होते ही गोकुल में कर आये थे। इस प्रकार बलराम और भगवान श्रीकृष्ण दोनों ही नन्दबाबा के पुत्र हुए और उन्होंने ही उनका लालन-पालन किया। नन्दजी राम और कृष्ण दोनों को प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे, दिन-रात उन्हीं की चिन्ता कियाकरते थे। उन्हें कोई कष्ट न हो, किसी प्रकार की असुविधा न हो, इस बात को वे बार-बार यशोदा मैया से कहते रहते थे। श्रीकृष्ण उनके बाहरी प्राण थे, उनके जीवन में श्रीकृष्ण स्मृति ही प्रधान स्मृति थी। वे अपने सब काम श्रीकृष्ण प्रीत्यर्थ ही करते थे। इससे मेरे लाल को सुख होगा, इसमें उसकी प्रसन्नता होगी, इस बात का ध्यान उन्हें सदा बना रहता था।

जब गोकुल में भाँति-भाँति के उत्पात होने लगे, पूतना-शकटासुर की घटनाएँ हुईं, तब सभी गोपी-गोप क्षुभित हो गये। श्रीकृष्ण की मंगल कामना से उन्होंने गोकुल को छोड़ दिया और वृन्दावन में आकर रहने लगे। वहाँ श्रीकृष्ण भाँति-भाँति की क्रीड़ाएँ करके नन्दबाबा को सुख देने लगे। एक दिन नन्दबाबा जी एकादशी का व्रत करके द्वादशी के दिन अर्ध रात्रि के समय स्नान करने के लिये यमुना तट पर आ गये। उस समय वरुण के दूतों ने उन्हें पकड़ लिया और वे उन्हें वरुण लोक में ले गये। इधर प्रातः काल जब गोपों ने नन्दीजी को नहीं देखा तो वे विलाप करने लगे। सर्वान्तर्यामी प्रभु सब बातें जान कर वरुण लोक को गये। भगवान को देखकर वरुण ने प्रभु की विधिवत पूजा की और दूतों की धृष्टता के लिये क्षमा माँगी, तब भगवान नन्दबाबाजी को साथ लेकर व्रज में आये और नन्दजी को विश्वास हो गया कि ये साक्षात पुराण पुरुषोत्तम हैं।

इसी प्रकार एक बार नन्दजी देवीजी की यात्रा में सब ग्वाल बालों को लेकर गये। वहाँ नन्दजी को रात्रि में सोते समय एक अजगर ने पकड़ लिया। गोपों ने उसे जलती लकड़ी से बहुत मारा, किंतु वह गया नहीं। तब भगवान ने चरण के अँगूठे से उसे छू दिया, छूते ही वह गन्धर्व बन गया और अपनी कथा सुना कर चला गया।[2]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संसार से भयभीत होकर कोई श्रुति का आश्रय ले, कोई दूसरा स्मृति की शरण ग्रहण करे और कोई तीसरा महाभारत की शरण जाय; हम तो नन्दबाबा की चरण वन्दना करते हैं, जिनके आँगन में साक्षात परब्रह्म खेलते हैं।
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 366 |

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