श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप
प्रस्तुत प्रेमोत्कर्ष का लोकोत्तर रसपूर्ण भाव अभिव्यक्त कर रहे हैं निम्बार्क-सिद्धान्त-सम्पोषक भक्तप्रवर श्रीनागरीदास जी, जिन्होंने पुष्कर क्षेत्र के अन्तर्गत किशनगढ़ राज्य के सम्पूर्ण विपुल वैभव का परित्याग कर श्रीवृन्दावन के मंजुल निकुंज और वीथियों में कलिन्दजा श्रीयमुना के अति सुरमणीय पावन पुलिन पर अवस्थित होकर वृन्दावन-नवनिकुन्ज-विहारी युगलकिशोर श्यामाश्याम रस परब्रह्म सर्वेश्वर श्रीराधाकृष्ण के परम-प्रेमा-भक्तिरससुधारूप अगाधसिन्धु में प्रतिपल निमज्जितसमुच्छ्वलित हो जिस परमानन्द-रस-सार का दिव्यतम अनुभव किया है, उसी को अपनी ललित-कलित सरस मद्यमय व्रजवाणी में आपूरित किया है और जिसका श्रीयुगल-रसरसज्ञ रसिक भगवज्जनों द्वारा अपने अतिशय कमनीय कलकण्ठ द्वारा निकुन्ज रस का अनुपम पान किया जाता है-
बिमल जुन्हइया जगमगी, रही बैंन धुनि छाय।
प्रेम-नदी तिय रगमगी, बृंदा-कानन आय।।
रुकी न कापैं तिय गईं, छाँड़ि काज गृह चाह।
मिल्यो स्याम रस सिंधु मन, सरिता प्रेम-प्रवाह।।[1]
क्यौं नहिं करै प्रेम अभिलाष।
या बिन मिलै न नंददुलारौ, परम भागवत साख।।
प्रेम स्वाद अरु आन स्वाद यौं ज्यौं अकडोडी दाख।
नागरिदास हिये मैं ऐसैं, मन, बच क्रम करि राख।।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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