श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप 6

श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप


श्रीश्रीभट्टाचार्य जी महाराज के परम कृपापात्र पट्टशिष्य जगद्गुरु निम्बार्काचार्य रसिकराजराजेश्वर श्रीहरिव्यासदेवाचार्य जी महाराज ने अपने महावाणी बृहद्वाणी-ग्रन्थ में प्रेमपरक अनेक स्थलों पर जिस अनिर्वचनीय विधा से मंजुल विवेचन किया है, वह द्रष्टव्य है-


जयति प्रेमा प्रेम सीमा कोकिला कल बैनिये।
परा भक्ति प्रदायिनी करि कृपा करुणानिधि प्रिये।।[1]

जयति नवनित्य नागरि निपुन राधिके,
रसिक-सिरमौरि मनमोहनी जू।
चारुछबि चंचला चित्त आकर्षनी,
बर्षनी प्रेम-घन मोहनी जू।।
सहज सिद्धा प्रसिद्धा प्रकासिका प्रभा,
दिब्य बर कनक-तन मोहनी जू।
स्वामिनी सुखद श्रीहरिप्रिया बिसद
जस पान की परम धन मोहनी जू।।[2]

जलतरंग ज्यौं नैंन में, तारे रहे समोय।
प्रेम पयोधि परे दोउ, पल न्यारे नहिं होय।।[3]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महावाणी, सेवा-सुख, पद-सं. 52 पंक्ति-सं. 9
  2. महावाणी, सुरत-सुख, दोहा-सं. 1
  3. महावाणी, सुरत-सुख, दोहा-सं. 24

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