श्रीनिम्बार्क सम्प्रदाय में प्रेम का दिव्य स्वरूप
इसी परम्परा में श्रीनिम्बार्काचार्यपीठाधीश्वर श्रीगोविन्दशरणदेवाचार्य जी महाराज ने अपने परम रसमय ‘गोविन्दवाणी’ ग्रन्थ में प्रेमरूपा परा भक्तिरूप जिस उत्तम विधा का विवेचन किया है, वह अत्यन्त चित्ताकर्षक है-
निस दिन भजन भावना बितवत, चरन कँवल अनुरागी।।
प्रेम मगन गावत माधौ गुन, हरि धन भये बिभागी।
धारत तिलक माल तुलसी की, बुधि सो तैं द्रुत जागी।।
दरसन पावन होयैं पतित जन, जिनकी मति हरि पागी।
गोबिंद सरन बिस्व उपकारी रसना हरि रट लागी।।[1]
नेति नेति कहत निगम, एक प्रेम की तैं सुगम।
गोबिंद सरन प्रभुता तजि, भये अति आधीनैं।।[2]
नीके बिहारी-बिहारिनि प्यारे।
कुंजमहल राजत रँगभीनै, सखि नैंननि के तारे।
अद्भुत गौर-साँवरे दंपति, पलहू होत न न्यारे।
मन बसी रसी सोहनी मूरति, बिसरत क्यौब बिसारे।।
रूप सुधा रस पियै परसपर, रहत प्रेम मतवारे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज