व्रजांगनाओं का भगवत्प्रेम
परब्रह्म ने प्रेमरूप का दर्शन व्रज में ही सम्भव है। सर्वव्यापक गुणातीत ब्रह्म का स्वरूप ही व्रज है। व्रज में कृष्ण की आत्म-परमात्ममिलन की लीला सदा से होती रही है और कब तक होगी- यह कहना सम्भव नहीं है। कृष्ण की आत्मा राधा हैं। राधा कृष्ण हैं और कृष्ण ही राधा हैं तथा इन दोनों का प्रेम वंशी है। यहाँ प्रेम की धारा अनवरत रूप से प्रवाहित होती रहती है।[1]
आत्मा में रमण करने वाले परमात्मा की यह प्रेमलीला कृष्ण और राधा के रूप में दर्शित होती है। प्रेमी और रसिक ही इस रस का आस्वादन करके आनन्दित होते हैं। प्रेम का रस गूँगे के गुड़ के समान अकथनीय है। उसका केवल अनुभव किया जा सकता है। पद्मपुराण में वर्णन है कि इस प्रेमरस को प्राप्त करने के लिये भगवान शंकर ने जब व्रजाधिपति श्रीकृष्ण से प्रार्थना की तब उन्होंने उन्हें द्वापर युग में व्रज आने की सलाह दी तदनुसार गौरीशंकर निर्दिष्ट समय पर व्रज में राधा-कृष्ण का दर्शन करके प्रेममग्न हुए।
सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण का सच्चिदानन्दमयी गोपिका-नामधारिणी अपनी ही छायामूर्तियों से जो दिव्य अप्राकृत प्रेम था उसका वर्णन कौन कर सकता है? प्रेमरूपा गोपियाँ ही इस रस को प्राप्त करने की अधिकारिणी हैं; क्योंकि आत्मा और परमात्मा की एकता को न जानने के कारण ही जगत की उत्पत्ति-स्थिति और प्रतीति होती है। स्वरूप में स्थित होने पर प्रभु को जीवरूप में देखा ही नहीं जा सकता। इन्द्रियों के वेग को रोककर ही गोपी बना जा सकता है। सदा अधिष्ठान-चिंतन और अधिष्ठानरूप में स्थित रहना ही गोपीभाव है।
गोपियों के प्राण और श्रीकृष्ण तथा श्रीकृष्ण के प्राण एवं गोपियों में कोई अन्तर नहीं रह जाता। वे परस्पर अपने-आप ही अपनी छाया को देखकर विमुग्ध होते हैं और सबको मोहित करते हैं। गोपियों ने अपने मन को श्रीकृष्ण के मन में तथा अपने प्राणों को श्रीकृष्ण के प्राणों में विलीन कर दिया था।[2] गोपियाँ इसीलिये जीवन धारण करती थीं कि श्रीकृष्ण वैसा चाहते थे। उनका जीवन-मरण, लोक-परलोक सब श्रीकृष्ण के अधीन था। उन्होंने अपनी सारी इच्छाओं को श्रीकृष्ण की इच्छा में मिला दिया था।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इसलिये तो कबीरदास जी ने कहा है-
कबिरा धारा प्रेम की सदगुरु दई लखाय। उलटि ताहि जपिये सदा प्रियतम संग मिलाय।। - ↑ गोपियों ने तभी तो उद्धव जी से कहा है-
ऊधौ मन न भए दस बीस। एक हुतौ सो गयौ स्याम सँग, को अवराधै ईस।। - ↑ भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 209 |
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