श्रीमद्भगवद्गीता में प्रेम साधना

श्रीमद्भगवद्गीता में प्रेम साधना

ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय श्रीजयदयाल जी गोयन्दका

एक परमेश्वर के सिवा मेरा कोई नहीं है, वे ही मेरे सर्वस्व हैं- ऐसा समझकर, जरा भी स्वार्थ, अभिमान और कामना न रखकर एकमात्र भगवान में ही अतिशय श्रद्धा से युक्त अनन्य प्रेम करना और भगवान से भिन्न किसी भी वस्तु में किन्चिन्मात्र भी प्रेम न करना यह अनन्य प्रेम है। अनन्य प्रेम के साधन का स्वरूप और फल गीता[1] में इस प्रकार बताया गया है-

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यति च रमन्ति च।।
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।

‘निरन्तर मुझमें मन लगाने वाले और मुझमें ही प्राणों को अर्पण करने वाले भक्तजन मेरी भक्ति की चर्चा के द्वारा आपस में मेरे प्रभाव को जानते हुए तथा गुण और प्रभाव सहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर संतुष्ट होते हैं एवं मुझ वासुदेव में ही निरन्तर रमण करते हैं। उपर्युक्त प्रकार से ध्यान आदि द्वारा मुझमें निरन्तर रमण करने और प्रेमपूर्वक भजने वाले भक्तों को मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’

यहाँ भगवान ने 9वें श्लोक में अनन्य प्रेमी भक्त के लक्षणों के रूप में छः साधन बतलाये हैं और 10वें श्लोक में उनका फल बतलाया है। अब इनके विषय में कुछ विस्तार से विचार किया जाता है-

‘मच्चित्ताः’


जैसे संसारी मनुष्य रात-दिन संसार में ही रचे-पचे रहते हैं, वैसे ही भगवान के प्रेमी भक्त भगवान में ही रचे-पचे रहते हैं तथा जैसे संसारी मनुष्य हर समय मन से संसार का ही चिन्तन करते रहते हैं, वैसे ही भगवद्भक्त हर समय मन से भगवान का ही चिन्तन करते रहते हैं। भगवान से मिलने के इच्छुक साधक भक्त मन से भगवान का आह्वान करके भगवान का दर्शन, भाषण, स्पर्श, वार्तालाप, पूजा, आदर, सत्कार और विनोद करते रहते हैं। सर्वप्रथम भक्त भगवान श्रीशिव, श्रीविष्णु, श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि अपने इष्टदेव का आह्वान करके चरणों से लेकर मस्तक तक वस्त्र-आभूषण-आयुध आदि के सहित उनके स्वरूप का श्रद्धा-प्रेम से चिन्तन करता है। फिर मन से ही अपने सम्मुख प्रकट मानसिक भगवान के स्वरूप का मानसिक सामग्री और अपने मानसिक शरीर के द्वारा षोडश उपचारों से पूजन करता है। तत्पश्चात आत्मीयतापूर्वक स्तुति-प्रार्थना करता है तथा मन से ही उनके साथ आमोद, प्रमोद और विनोद करता हुआ आश्रम, घर या वन में विचरण करता रहता है।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 10।9-10
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 130 |

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