गोपिकाओं की प्रेमोपासना

गोपिकाओं की प्रेमोपासना

गोपी-प्रेम का तत्त्व वही प्रेमी भक्त कुछ जान सकता है जिसे भगवान कि ह्लादिनी शक्ति श्रीमती राधिकाजी और आनन्द तथा प्रेम के दिव्य समुद्र भगवान सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्रीकृष्ण ही कृपा पूर्वक जना दें। जानने वाला भी उसे कह या लिख नहीं सकता, क्योंकि ‘गोपी-प्रेम’ का प्रकाश करने वाली भगवान की वृन्दावन लीला सर्वथा अनिर्वचनीय है। वह कल्पनातीत, अलौकिक और अप्राकृत है। समस्त व्रजवासी भगवान के मायामुक्त परिकर हैं और भगवान की निज आनन्द शक्ति योग माया श्री राधिकाजी की अध्यक्षता में भगवान श्रीकृष्ण की मधुर लीला में योग देने के लिये व्रज में प्रकट हुए हैं। व्रज में प्रकट इन महात्माओं की चरण रज की चाह हुए सृष्टि कर्ता ब्रह्माजी स्वयं कहते हैं -
तदस्तु मे नाथ स भूरिभागो
भवेऽत्र वान्यत्र तु वा तिरश्चाम्।
येनाहमेकोऽपि भवज्जनानां
भूत्वा निषेवे तव पादपल्लवम्।।
अहो भाग्यमहो भाग्यं नन्दगोपव्रजौकसाम्।
यन्मित्रं परमानन्दं पूर्णं ब्रह्म सनातनम्।।
तद्भूरिभाग्यमिह जन्म किमप्यटव्यां
यद्‌ गोकुलेऽपि कतमाङ्‌घ्निरजोऽभिषेकम्‌।
यज्जीविंत तु निखिलं भगवान्मुकुंद-
स्त्वद्यापि यत्पदरज श्रुतिमृग्यमेव॥[1]

‘हे प्रभो! मुझे ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं इस जन्म में अथवा किसी तिर्यक-योनि में ही जन्म लेकर आपके दासों में से एक होऊँ, जिससे आपके चरण कमलों की सेवा कर सकूँ। अहो! नन्दादि व्रजवासी धन्य हैं, इनके धन्य भाग्य हैं, जिनके सुहृद परमानन्द रूप सनातन पूर्ण ब्रह्म स्वयं आप हैं। इस धरातल पर व्रज में और उसमें भी गोकुल में किसी कीड़े-मकोड़े की योनि पाना ही परम सौभाग्य है, जिससे कभी किसी व्रजवासी की चरण रज से मस्तक को अभिषिक्त होने का सौभाग्य मिले।’[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10।14।30, 32, 34
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 358 |

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