श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम

श्रीमच्छंकराचार्य जी का श्रीकृष्ण प्रेम

प्रबोधसुधाकर नामक ग्रन्थ में श्रीमच्छंकराचार्यजी ने द्विधा भक्ति, भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान और सगुण-निर्गुण की एकता आदि का बड़ा सुन्दर विवेचन किया है। उसे संक्षेप में भावार्थ सहित यहाँ दिया जा रहा है-

द्विधा भक्ति

चित्ते सत्त्वोत्पत्तौ तडिदिव बोधोदयो भवति। तर्ह्येव स स्थिरः स्याद्यदि चित्तं शुद्धिमुपयाति।।
शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोजभक्तिमृते। वसनमिव क्षारोदैर्भक्त्या प्रक्षाल्यते चेतः।।
यद्वत्समलादर्शे सुचिरं भस्मादिना शुद्धे। प्रतिफलति वक्त्रमुच्चैः शुद्धे चित्ते तथा ज्ञानम्।।
जानन्तु तत्र बीजं हरिभक्त्या ज्ञानिनो ये स्युः। मूर्तं चैवामूर्तं द्वे एव ब्रह्मणो रूपे।।
इत्यपषित्तयोर्वा द्वौ भक्तौ भगवदुपदिष्टौ। क्लेशादक्लेशाद्वा मुक्तिः स्यादेतयोर्मध्ये।।
स्थूला सूक्ष्मा चेति द्वेधा हरिभक्तिरुद्दिष्टा। प्रारम्भे स्थूला स्यात्सूक्ष्मा तस्याः सकाशाच्च।।[1]

चित्त में सत्त्व की उत्पत्ति होने पर बिजली की तरह बोध हो जाता है और यदि चित्त शुद्ध हो चुका हो तो वह बोध उसी समय स्थिर हो जाय। अन्तरात्मा (चित्त) की शुद्धि श्रीकृष्ण के चरणकमल की भक्ति बिना नहीं होती। जैसे साबुन से मिले हुए जल के द्वारा वस्त्र प्रक्षालन किया जाता है, इसी प्रकार भक्ति से चित्त धुलता है। जैसे मलिन दर्पण को भस्म आदि से भलीभाँति साफ कर लेने पर उसमें मुख का प्रतिबिम्ब ठीक पड़ता है, इसी प्रकार ज्ञान भी शुद्ध चित्त में होता है। जो हरि की भक्ति से ज्ञानी हुए हैं वे उसमें भक्ति को ही बीज समझें, ब्रह्म के मूर्त और अमूर्त दो ही रूप हैं। यह उपनिषद है, भगवान ने दो ही प्रकार के भक्त बतलाये हैं। उन दोनों में से एक को मुक्ति क्लेश से मिलती है, दूसरे को बिना ही क्लेश के मिल जाती है। हरिभक्ति दो प्रकार की कही गयी है- स्थूल और सूक्ष्म। प्रारम्भ में स्थूल होती है, फिर उसी से सूक्ष्म हो जाती है।। 166-171 ।।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 166-171
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 52 |

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