मीरा की प्रेम साधना

‘मीरा की प्रेम-साधना’

श्री अर्जुन लालजी बंसल


पग घुँघरू बाँध मीरा नाची रे।।
मैं तो मेरे नारायण की आपहि हो गइ दासी रे।
लोग कहै मीरा भई बावरी न्यात कहै कुलनासी रे।।
बिष का प्याला राणाजी भेज्या पीवत मीरा हाँसी रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर सहज मिले अबिनासी रे।।

माधुर्य रस से ओत-प्रोत यह रचना जब सुनायी देती है, उस समय आँखों के सामने एक दिव्य स्वरूप धारिणी राजस्थानी युवती की मनमोहक छवि प्रकट हो जाती है। एक हाथ में इकतारा दूसरे में खड़ताल, पैरों में घुँघरू बाँधे, पलकें अधमुँदी-सी अपने साँवरी सलोने के आगे नाचती-गाती यह प्रेम-दीवानी वैरागिन मीराबाई के नाम से आध्यात्मिक जगत में अमर हो गयी। कहा जाता है कि बचपन में कोई साधु इन्हें श्रीकृष्ण की एक अति सुन्दर मूर्ति दे गया था। मीरा इसके प्रति आकर्षित हो गयी और इसकी भक्ति में लीन रहने लगी।

समय के साथ-साथ मीरा सयानी हो गयी। कुमार भोजराज के संग मीरा का विवाह हो गया, परंतु यह सम्बन्ध केवल औपचारिक ही रह गया। मीरा ने तो कृष्ण कन्हैया का वरण कर लिया था और अपने मन के भाव व्यक्त करते हुए लिखा था -
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।।
जाके सिर मोर मुगट मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई।।
छाँड़ि दई कुलकि कानि कहा करिहै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोकलाज खोई।।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 413 |

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