मीरा की प्रेम साधना 2

‘मीरा की प्रेम-साधना’

श्री अर्जुन लालजी बंसल


चुनरी के किये टूक ओढ़ लीन्हीं लोई।
मोती मूँगे उतार बनमाला पोई।।
अँसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणँद फल होई।।
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई।।
भगति देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही।।

मीरा ने इस भौतिक जगत का सर्वथा त्याग कर दिया था। पारिवारिक नाते सब तोड़ दिये थे एवं केवल एक के संग नाता जोड़कर उसी के चिन्तन में, उसी के प्रेम में मग्न रहने लगी -

मैं तो साँवरे के संग राची।
साजि सिंगार बाँधि पग घुँघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधु की संगति, भगत, रूप भई साँची।
गाय गाय हरि के गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बाँची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब काँची।
मीरा श्री गिरिधरन लालसूँ, भगति रसीली जाँची।।

मीरा को अपने गिरधर के प्रति प्रेम की अनुभूति में सदैव उन्हीं के दर्शन हुआ करते थे -


पृष्ठ पर जाएँ

1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6


संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः