प्रेमधर्मरूप सौन्दर्य माधुर्यसिन्धु भगवान श्रीकृष्ण
जय नँदनंदन प्रेम-विवर्धन सुषमासागर नागर स्याम ।
जय कांता-पट-कांति-कलेवर मन्मथ-मन्मथ रूप ललाम ।।
जय गोपीजन-मन-हर मोहन राधावल्लभ नव-घनरूप ।
जय रस-सुधा-सिंधु सुचि उछलित राससेस्वर रसिक अनूप ।।
जय मुरली धर अधर गान-रत जय गिरिवरधर जय गोपाल ।
जग जोहत बीतल पल जुग सम दै दरसन अब करौ निहाल ।।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 60 |
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