श्रीमद्भगवद्गीता में भगवत्प्रेम का गीत

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवत्प्रेम का गीत

श्री रामकृृष्ण रामानुजदास ‘श्री सन्तजी महाराज’


श्रीमद्भगवद्गीता में सर्वत्र भगवत्प्रेम का ही गीत दिखायी देता है। वास्तव में भगवत्प्रेम का स्वरूप ठीक-ठीक बताना बहुत कठिन है, क्योंकि यह अनुभव रूप है। प्रेमी बनकर ही कोई इस दिव्य भवगत्प्रेम को समझ सकता है और भगवत्प्रेम को समझने के लिये भगवान के दिव्य रूप का भी अनुभव होना आवश्यक है।

भगवत्कृपा सब पर सदा-सर्वदा है ही, लेकिन अभागा मनुष्य संसार में व्यक्तरूप भगवान पर शीघ्र विश्वास नहीं करता है, यही भगवत्प्रेम की अनुभूति में बाधक है। भगवान के तत्त्व का अनुभव प्राप्त करने के लिये सर्वप्रथम उनके किसी नाम का आश्रय लेना आवश्यक है। अधिकांश जीव अनेक जन्मों तक शरीर तथा इन्द्रियों के विषयों में भटकते रहते हैं। मानव-तन प्राप्त होने पर भी जीवों की पुरानी आदत नहीं छूटती है। उन्हें भगवत्प्रेम की साधना का कुछ भी ज्ञान नहीं रहता है। यद्यपि भगवत्प्रेम की प्राप्ति सहज और सुलभ है, लेकिन इसके लिये नाम का आश्रय लेना आवश्यक है। नाम-जप तथा नाम-कीर्तन वाणी का सर्वश्रेष्ठ तप है। इसे भगवत्प्रेम का बीज कहा जा सकता है। इस घोर कलयुग में मनुष्यों के बड़े-बड़े पापों को मिटाने की शक्ति केवल प्रभु के नाम में ही है। जिस प्रकार श्री रामचरितमानस तथा श्रीमद्भागवत में प्रभु के नाम की साधना प्रधान है, उसी प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता में भी नाम-संकीर्तन की साधना का संदेश सर्वत्र दिखायी पड़ता है। इसमें ‘भजन’ शब्द का प्रयोग वास्तव में नाम-संकीर्तन करते रहने का ही संदेश देता है -

तेषां सततयुक्तानां प्रीतिपूर्वकम्‌।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयांति ते।।[1]

श्रीधर गोस्वामी ने इस श्लोक की व्याख्या में स्पष्ट कहा है कि यहाँ ‘भजन’ का तात्पर्य नाम-संकीर्तन समझना चाहिये। नाम-संकीर्तन के द्वारा भक्त का मन भगवान के साथ सतत जुड़ता रहता है। ‘सततयुक्तानां भजताम्’ का यही भाव बताया गया है। नाम-संकीर्तन की साधना द्वारा ज्ञान तथा वैराग्य के गुण स्वतः ही प्राप्त हो जाते हैं। यह नाम-साधना साधन तथा साध्य दोनों है। ज्ञान की ऊँचाई प्राप्त करने पर भी ज्ञानियों को नाम की साधना करते रहना चाहिये। आद्य शंकराचार्य, रामानुजाचार्य तथा मधुसूदन सरस्वती आदि ज्ञानियों ने जीवन के अन्तिम क्षण तक प्रभु के नाम का विस्मरण नहीं किया। इसलिये गीता के सभी भाष्यकारों ने भगवान के नाम का आश्रय लेने के लिये संदेश दिया है।[2]


पृष्ठ पर जाएँ

1 | 2 | 3 | 4 | 5


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 10।10
  2. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 437 |

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः