जायसी की प्रेम व्यंजना

जायसी की प्रेम-व्यञ्जना


‘प्रेमपीर’ के अमर गायक कविवर जायसी हिन्दी-साहित्य की प्रेमाश्रयी शाखा के विलक्षण व्यक्ति थे। वे शरीर से कुरूप और एकाक्ष, किंतु मन से सुन्दर तथा समदर्शी थे। जीवन के प्रभात में अति सामान्य जीवन-यापन करने वाले जायसी आगे चलकर अपने युग के पहुँचे हुए सूफी फकीर बन गये। दो विरोधी संस्कृतियों के एकत्व के सफल प्रयोक्ता के रूप में कविवर जायसी का स्थान अनुपम है। प्रेमपीर की धड़कन के दिव्य आलोक जायसी ने हिन्दुओं में प्रचलित पद्मावती और रत्नसेन की प्रेमगाथा का आश्रय लेकर गहरे सद्भाव तथा असीम भावुकता का परिचय दिया। प्रेम-गाथाओं की अपनी सरस परम्परा रही है और जायसी सम्भवतः उसके दिव्य अलंकार थे। इनकी प्रेमोपेत रचना ‘पदमावत’ अद्वैत रहस्य वाद का उत्कृष्ट उदाहरण है।

‘पदमावत’ महाकाव्य के ‘प्रेमखण्ड’ में प्रेम तत्त्व का निरूपण सूफी-प्रेमादर्शन के आधार पर हुआ है। महाकवि जायसी का लक्ष्य प्रेम साधना के द्वारा प्रेम स्वरूप परमात्मा की अनुभूति और उपलब्धि कराना रहा है। यही कारण है कि ‘पदमावत’ में पदे-पदे प्रेम की प्रदक्षिणा प्रथित है। कहीं वह अनुभूतिजन्य है, कहीं लौकिक और कहीं लोक-बन्ध से परे आध्यात्मिक है; किंतु इन सबके मूल में प्रेम का वह दिव्य रूप है, जो सरस सौन्दर्य की अलौकिक आभा से व्यक्ति को अनुरक्त करता है। सूफी साधकों की दृष्टि में ईश्वर (खुदा) परम सौन्दर्यमय है एवं प्रेमालम्बन का एक मात्र वही अन्तिम अवस्थान है। मानव की मूल प्रवृत्ति रागमयी है। मनुष्य की आत्म पूर्ण तत्त्व की प्राप्ति हेतु हमेशा प्रयत्नशील रहती है। सौन्दर्य, समत्व एवं पूर्णत्व की ही अपर अभिधा है। मानव की सम्पूर्ण साधना का अन्तिम लक्ष्य इसी परम रूप की उपलब्धि है। असीम सौन्दर्य-सागर ईश्वर-प्राप्ति का एकान्त आग्रह प्रेम का ही प्रति रूप है। संसार के कण-कण में परम प्रिय विभु का सौन्दर्य विद्यमान है। सौन्दर्य की सत्ता ही संसार का आधार और सार है। उस अखण्ड सौन्दर्य-सत्ता की उपलब्धि एवं अनुभूति का एक मात्र माध्यम प्रेम है। जायसी ने इसी प्रेम की चिरन्तन भावना का निरूपण कर सम्पूर्ण ‘पदमावत’ में प्रेमातिशयता का प्रकाश भर दिया है।

जायसी के मतानुसार प्रेम की एक चिनगारी मात्र हृदय में अमित ज्वाला प्रज्वलित करने में सक्षम होती है, जिसमें सम्पूर्ण लोक विचलित हो उठता है -
मुहमद चिनगी अनँग की सुनि महि गँगन डेराइ।
धनि बिहारी औ धनि हिया जेहि सब आगि समाइ।।

इतना ही नहीं, जब हृदय में प्रेम जाग्रत होता है तो प्रेमी की दशा मृत्यु से भी अधिक भयानक हो जाती है। प्रेम का पन्थ कण्टकाकीर्ण है अर्थात प्रेमोपलब्धि अत्यन्त दुर्लभ है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 425 |

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