प्रेमकल्पलता श्रीराधा जी का महाभाव
वन्दे राधापदाम्भोजं ब्रह्मादिसुरवन्दितम्।
यत्कीर्तिकीर्तनेनैव पुनाति भुवनत्रयम्।।[1]
मैं श्रीराधा के उन चरणकमलों की वन्दना करता हूँ जो ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा वन्दित हैं तथा जिनकी कीर्ति के कीर्तन से ही तीनों भुवन पवित्र हो जाते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण अपने आनन्द को प्रेमविग्रहों के रूप में दर्शाते हैं और स्वयं ही उनसे आनन्द प्राप्त करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के उस आनन्द की प्रतिमूर्ति ही प्रेमविग्रहरूपा श्रीराधा जी हैं। राधा का यह प्रेमविग्रह सम्पूर्ण प्रेमों का एकीभूत समूह है। आनन्दसार का घनीभूत विग्रह श्रीकृष्ण और प्रेमरससार की घनीभूत मूर्ति श्रीराधा जी का कभी विछोह नहीं होता। वे एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं। श्रीराधा जी, श्रीकृष्ण जी की जीवनरूपा हैं और श्रीकृष्ण, श्रीराधाजी के जीवन हैं। दिव्य प्रेमरससार विग्रह होने से ही राधिका महाभावरूपा हैं, जो उनके प्रियतम श्रीकृष्ण को सदा सुख प्रदान करती रहती हैं।
श्रीश्याम-राधिका की बाल्यावस्था के प्रथम-मिलन का सूरदास जी ने अपने एक पद में कितना मार्मिक एवं स्वाभाविक वर्णन किया है-
बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहाँ रहति, काकी है बेटी, देखी नहीं कहूँ ब्रजखोरी।।
काहे काँ हम ब्रज-तन आवर्तिं, खेलति रहतिं आपनी पौरी।
सुनत रहतिं स्त्रवननि नँद-ढोटा, करत फिरत माखन-दधि चोरी।।
तुम्हरौ कहा चोरि हम लैहैं, खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि, बातनि भुरइ राधिका भोरी।।[2]
कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति की लाखों अनुगामिनी शक्तियाँ मूर्तिमती होकर प्रतिक्षण सखी, मंजरी, सहचरी, दूती आदि रूपों में श्रीराधा-कृष्ण की सेवा किया करती हैं। उन्हें सुख पहुँचाना तथा प्रसन्न रखना ही इन गोपीजन का मुख्य कार्य होता है। श्रीकृष्ण ने राधा के लिये कहा है- ‘जो तुम हो ही मैं हूँ।’[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्र.वै.पु. श्रीकृष्ण. 92।63
- ↑ सूरसागर पद 1291
- ↑ भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 211 |
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