आचार्य श्रीमधुसूदन सरस्वती जी का श्रीकृष्ण प्रेम

आचार्य श्रीमधुसूदन सरस्वती जी का श्रीकृष्ण प्रेम


वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्
पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्
कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने।।

जिनके करकमल वंशी से विभूषित हैं, जिनकी नवीन मेघ की-सी आभा है, जिनके पीत वस्त्र है, अरुण बिम्बफल के समान अधरोष्ठ हैं, पूर्ण चन्द्र के सदृश सुन्दर मुख और कमल के से नयन हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य किसी भी तत्त्व को मैं नहीं जानता।

ध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसा तन्निर्गुणं निष्क्रियं
ज्योतिः किन्चन योगिनो यदि परं पश्चन्ति पश्यन्तु ते।
अस्माकं तु तदेव लोचनचमत्काराय भूयाच्चिरं
कालिन्दीपुलिनेषु यत्किमपि तन्नीलं महो धावति।।[1]

ध्यानाभ्यास से मन को स्ववश करके योगीजन यदि किसी प्रसिद्ध निर्गुण, निष्क्रिय परमज्योति को देखते हैं तो वे उसे भले ही देखें, हमारे लिये तो श्रीयमुना जी के तट पर जो कृष्ण के नाम वाली वह अलौकिक नील ज्योति दौड़ती फिरती है, वही चिरकाल तक लोचनों को चकाचैंध में डालने वाली हो।

श्रीमधुसूदन सरस्वती जी अद्वैत वेदान्त के महान तत्त्वज्ञ थे, किंतु भगवान मनमोहन की मोहिनी छटा ने उन पर ऐसा प्रभाव डाला कि फिर वे सदा के लिये उनकी गुणावली पर रीझते ही चले गये। भगवान का स्वरूप ही ऐसा है कि उस पर अमलात्मा-विमलात्मा ज्ञानीजन भी मुग्ध हो जाते हैं-

आत्मारामाश्च मुनयो निग्रन्था अप्युरुक्रमे।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः।।[2]

अर्थात जो लोग ज्ञानी हैं, जिनकी अविद्या की गाँठ खुल गयी है और जो सदा आत्मा में ही रमण करने वाले हैं, वे भी भगवान की हेतु रहित भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो सबको अपनी ओर खींच लेते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मधुसूदनी गीताटी.
  2. श्रीमद्भा. 1।7।10

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