भक्ति सागर का एक अमूल्य रत्न

भक्ति सागर का एक अमूल्य रत्न - प्रभुप्रेमी प्रह्लाद

श्रीमती सरलाजी श्रीवास्तव


जैसे सागर की उत्ताल तरंगें अपने गर्भ में अनेक बहुमूल्य रत्नों को सँजोये रहती हैं, किंतु चतुर गोताखोर उनको खोज कर देव प्रतिमाओं की शोभा बढ़ाने हेतु ऊपर ले ही आते हैं, उसी प्रकार भक्ति रूपी सरिता में अवगाहन करने वाले देवर्षि नारद भव सागर में भटकते निर्मल हृदय के प्राणियों को परमात्मा की ओर उन्मुख करने में अत्यन्त प्रवीण हैं।

श्रीमद्भागवत में प्रसंग आता है कि नारदजी ने भक्ति देवी को वचन दिया कि कलियुग में भी वे भक्ति का प्रचार एवं प्रसार करेंगे। उन्हीं के प्रयास से भक्ति देवी पुनः स्वस्थ हो गयीं। आदि काल से ही देवर्षि की वीणा करुणा सागर प्रभु के गुण गान में व्यस्त रही। श्री हरि की कृपा से उन्होंने अल्प वयस्क बालकों को भी परम भागवत बनाने में सफलता प्राप्त की। उनके ही उपदेश के प्रभाव से दैत्यों के कण्ट का कीर्ण कानन में एक सुगन्धित पुष्प विकसित हुआ - भक्त प्रह्लाद, जिसके दैवी गुण प्रत्येक विषम परिस्थिति में उसे विजयी बनाने में सफल हुए।

भगवान के द्वारा हिरण्याक्ष का वध किये जाने पर हिरण्यकशिपु ने उनसे शत्रुता ठान ली। घोर तपस्या करके ब्रह्मा जीको आत्मसात कर लिया। संसार में आने के पश्चात भी उस बालक ने हरि कथा से सुरभित अपनी बुद्धि को कभी दूषित नहीं होने दिया। यद्यपि वह दैत्य कुल में उत्पन्न हुआ और अपने चारों ओर उसने अत्याचार एवं क्रूरता का ही साम्राज्य देखा; किंतु उसका भगवत्प्रेमानुरागी चित्त सदैव भक्त वत्सल भगवान के श्री चरणों में ही लीन रहा।

भक्त प्रह्लाद बचपन में ही खेल-कूद छोड़ कर भगवान के ध्यान में तन्मय हो जाया करते थे। हिरण्यकशिपु ने गुरु शुक्राचार्य के पुत्र शण्ड एवं अमर्क को उनकी शिक्षा-दीक्षा हेतु नियुक्त किया। अन्य दैत्य बालकों के साथ पढ़ते समय भी उनका आध्यात्मिक चिन्तन चलता रहता, अतः भौतिक राजनीति एवं अर्थ नीति का पाठ उनको रुचिकर प्रतीत नहीं होता था।

जब कभी उनके पिता प्रेमपूर्वक अपनी गोद में बैठा कर उनसे अध्ययन के विषय में ज्ञात करने की चेष्टा करते तो प्रह्लाद सदैव वास्तविक सत्य की ही व्याख्या करने लगते। वे कहते कि ‘मैं’ और ‘मेरे’ का त्याग करके प्रत्येक प्राणी को श्री हरि की शरण में ही जाना चाहिये। अपने आत्मज के मुख से अपने शत्रु की प्रशंसा सुनकर हिरण्यकशिपु बौखला जाता था। फिर भी प्रह्लाद निश्चय अडिग था। एक बार तो उन्होंने अपने पिता के सम्मुख नवधा-भक्ति की विवेचना कर डाली। उन्होंने कहा - पिताजी! भगवान के नाम-गुण-लीला-धाम आदि का श्रवण, उन्हीं का कीर्तन, उनके रूप, नाम आदि का स्मरण, उनके चरणों की सेवा, पूजा-अर्चा, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन आदि समर्पण के भाव से यह नौ प्रकार की भक्ति ही वास्तविक अध्ययन है।[1]


पृष्ठ पर जाएँ

1 | 2 | 3


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवत्प्रेम अंक |लेखक: राधेश्याम खेमका |प्रकाशक: गीताप्रेस, गोरखपुर |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 456 |

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः