युधिष्ठिर द्वारा धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की हड्डियों को गंगा में प्रवाहित करना

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में नारदागमन पर्व के अंतर्गत 39वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने राजा युधिष्ठिर द्वारा धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती की हड्डियों को गंगा में प्रवाहित करने तथा श्राद्धकर्म करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

नारदजी द्वारा पांडवों को सांत्वना देना

नारद जी ने कहा- उत्तम व्रत का पालन करने वाले नरेश! विचित्रवीर्यकुमार राजा धृतराष्ट्र का दाह व्यर्थ (लौकिक) अग्नि से नहीं हुआ है। इस विषय में मैंने वहाँ जैसा सुना था, वह सब तुम्हें बताऊँगा। हमारे सुनने में आया है कि वायु पीकर रहने वाले वे बुद्धिमान नरेश जब घने वन में प्रवेश करने लगे, उस समय उन्होंने याजकों द्वारा इष्टि कराकर तीनों अग्नियों को वहीं त्याग दिया। भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर उनकी उन अग्नियों को उसी निर्जन वन में छोड़कर उनके याजकगण इच्छानुसार अपने-अपने स्थान को चले गये। कहते हैं, वही अग्नि बढ़कर उस वन में सब ओर फैल गयी और उसी ने उस सारे वन को भस्मसात कर दिया- यह बात मुझसे वहाँ के तापसों ने बतायी थी। भरतश्रेष्ठ! वे राजा गंगा के तट पर, जैसा कि मैंने तुम्हें बताया है, उस अपनी ही अग्नि से दग्ध हुए हैं। निष्पाप नरेश! गंगा जी के तट पर मुझे जिनके दर्शन हुए थे, उन मुनियों ने मुझसे ऐसा ही बताया था। पृथ्वीनाथ! इस प्रकार राजा धृतराष्ट्र अपनी ही अग्नि से दाह को प्राप्त हुए हैं, तुम उन नरेश के लिये शोक न करो। वे परम उत्तम गति को प्राप्त हुए हैं। जनेश्वर! तुम्हारी माता कुन्ती देवी गुरुजनों की सेवा के प्रभाव से बहुत बड़ी सिद्धि को प्राप्त हुई हैं, इस विषय में मुझे कोई संदेह नहीं है। राजेन्द्र! अब अपने सब भाइयों के साथ जाकर तुम्हें उन तीनों के लिये जलांजलि देनी चाहिये। इस समय यहाँ इसी कर्तव्य का पालन करना चाहिये।[1]

युधिष्ठिर का जलांजलि देकर दान देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तब पाण्डव धुरन्धर पृथ्वीपाल नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर अपने भाइयों और स्त्रियों के साथ नगर से बाहर निकले। उनके साथ राज भक्ति को सामने रखने वाले पुरवासी और जनपद निवासी भी थे। वे सब एक वस्त्र धारण करके गंगा जी के समीप गये। उन सभी श्रेष्ठ पुरुषों ने गंगा जी के जल में स्नान करके युयुत्सु को आगे रखते हुए महात्मा धृतराष्ट्र के लिये जलांजलि दी। फिर विधिपूर्वक नाम और गोत्र का उच्चारण करते हुए गान्धारी और कुन्ती के लिये भी उन्होंने जल-दान किया। तत्पश्चात शौचसम्पादन या अशौचनिवृत्ति के लिये प्रयत्न करते हुए वे सब लोग नगर से बाहर ही ठहर गये। नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर ने जहाँ राजा धृतराष्ट्र दग्ध हुए थे, उस स्थान पर भी हरद्वार में विधि-विधान के जानने वाले विश्वास पात्र मनुष्यों को भेजा और वहीं उनके श्राद्ध कर्म करने की आज्ञा दी। फिर उन भूपाल ने उन पुरुषों को दान में देने योग्य नाना प्रकार की वस्तुएँ अर्पित कीं। शौच-सम्पादन के लिये दशाह आदि कर्म कर लेने के पश्चात पाण्डुनन्दन राजा युधिष्ठिर ने बारहवें दिन धृतराष्ट्र आदि के उद्देश्य से विधिवत श्राद्ध किया तथा उन श्राद्धों में ब्राह्मणों को पर्याप्त दक्षिणाएँ दीं। तेजस्वी राजा युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र, गान्धारी और कुन्ती के लिये पृथक-पृथक उनके नाम ले-लेकर सोना, चाँदी, गौ तथा बहुमूल्य शैय्याएँ प्रदान कीं तथा परम उत्तम दान दिया।[1]

उस समय जो मनुष्य जिस वस्तु को जितनी मात्रा में लेना चाहता, वह उस वस्तु को उतनी ही मात्रा में प्राप्त कर लेता था। राजा युधिष्ठिर ने अपनी उन दोनों माताओं के उद्देश्य से शैय्या, भोजन, सवारी, मणि, रत्न, धन,वाहन, वस्त्र, नाना प्रकार के भोग तथा वस्त्राभूषणों से विभूषित दासियाँ प्रदान कीं। इस प्रकार अनेक बार श्राद्ध के दान देकर पृथ्वीपाल राजा युधिष्ठिर ने हस्तिनापुर नामक नगर में प्रवेश किया। जो लोग राजा की आज्ञा से हरद्वार में भेजे गये थे, वे उन तीनों की हड्डियों को संचित करके वहाँ से फिर गंगा जी के तट पर गये। फिर भाँति-भाँति की मालाओं और चन्दनों से विधिपूर्वक उनकी पूजा की। पूजा करके उन सब को गंगा जी में प्रवाहित कर दिया। इस के बाद हस्तिनापुर में लौटकर उन्होंने यह सब समाचार राजा को कह सुनाया। राजन! तदनन्तर देवर्षि नारद जी धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर को आश्वासन देकर अभीष्ट स्थान को चले गये। इस प्रकार जिनके पुत्र रणभूमि में मारे गये थे, उन राजा धृतराष्ट्र ने अपने जाति-भाई, सम्बन्धी, मित्र, बन्धु और स्वजनों के निमित्त सदा दान देते हुए (युद्ध समाप्त होने के बाद) पंद्रह वर्ष हस्तिनापुर नगर में व्यतीत किये थे और तीन वर्ष वन में तपस्या करते हुए बिताये थे। जिनके बन्धु-बान्धव नष्ट हो गये थे, वे राजा युधिष्ठिर मन में अधिक प्रसन्न न रहते हुए किसी प्रकार राज्य का भार सँभालने लगे।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 39 श्लोक 1-17
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 39 श्लोक 18-27

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