युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र को यथेष्ट धन देने की स्वीकृति देना

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत 12वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने अर्जुन द्वारा भीम को समझाने एवं युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र को यथेष्ट धन देने की स्वीकृति का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

अर्जुन का भीम को समझाना

अर्जुन बोले- भैया भीमसेन! आप मेरे ज्येष्ठ भ्राता और गुरुजन हैं, अतः आपके सामने मैं इसके सिवा और कुछ नहीं कह सकता कि राजर्षि धृतराष्ट्र सर्वथा समादर के योग्य हैं। जिन्होंने आर्यों की मर्यादा भंग नहीं की है, वे साधु स्वभाव वाले श्रेष्ठ पुरुष दूसरों के अपराधों को नहीं उपकारों को ही याद रखते हैं।

युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र को धन देने की स्वीकृति

महात्मा अर्जुन की यह बात सुनकर धर्मात्मा कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर ने विदुर जी से कहा- चाचा जी! आप मेरी ओर से कौरव नरेश धृतराष्ट्र से जाकर कह दीजिये कि वे अपने पुत्रों का श्राद्ध करने के लिये जितना धन चाहते हों, वह सब मैं दे दूँगा। प्रभो! भीष्म आदि समस्त उपकारी सुहृदों का श्राद्ध करने के लिये केवल मेरे भण्डार से धन मिल जायगा। इसके लिये भीमसेन अपने मन में दुखी न हों’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर धर्मराज ने अर्जुन की बड़ी प्रशंसा की। उस समय भीमसेन ने अर्जुन की ओर कटाक्षपूर्वक देखा। तब बुद्धिमान युधिष्ठिर ने विदुर से कहा - ‘चाचाजी! राजा धृतराष्ट्र को भीमसेन पर क्रोध नहीं करना चाहिये। आपको तो मालूम ही है कि वन में हिम, वर्षा और धूप आदि नाना प्रकार के दुःखों से बुद्धिमान भीमसेन को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा है। आप मेरी ओर से राजा धृतराष्ट्र से कहिये कि भरतश्रेष्ठ! आप जो-जो वस्तु जितनी मात्रा में लेना चाहते हों, उसे मेरे घर से ग्रहण कीजिये। भीमसेन अत्यन्त दु:खी होने के कारण जो कभी ईर्ष्या प्रकट करते हैं, उसे वे मन में न लावें। यह बात आप महाराज से अवश्य कह दीजियेगा। मेरे और अर्जुन के घर में जो कुछ भी धन है, उस सबके स्वामी महाराज धृतराष्ट्र हैं; यह बात उन्हें बता दीजिये। वे ब्राह्मणों को यथेष्ट धन दें। जितना खर्च करना चाहें, करें। आज वे अपने पुत्रों और सुहृदों के ऋण से मुक्त हो जायँ। उनसे कहिये, जनेश्वर! मेरा यह शरीर और सारा धन आपके ही अधीन है। इस बात को आप अच्छी तरह जान लें। इस विषय में मेरे मन में संशय नहीं हैं’।

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-13

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