साम्ब ब्राह्मण का धृतराष्ट्र को सान्त्वनापूर्ण उत्तर देना

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत दसवें अध्याय में वैशम्पायन जी ने धृतराष्ट्र के क्षमा प्रार्थना करने पर प्रजा की ओर से साम्ब नामक ब्राह्मण का धृतराष्ट्र को सान्त्वनापूर्ण उत्तर देने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

साम्ब ब्राह्मण का धृतराष्ट्र को सान्त्वनापूर्ण उत्तर देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! बूढे़ राजा धृतराष्ट्र के ऐसे करुणामय वचन कहने पर नगर और जनपद के निवासी सभी लोग दुःख से अचेत से हो गये। उन सबके कण्ठ आँसुओं से अवरुद्ध हो गये थे; अतः वे कुछ बोल नहीं पाते थे। उन्हें मौन देख महाराज धृतराष्ट्र ने फिर कहा- ‘सज्जनों! मैं बूढ़ा हूँ। मेरे सभी पुत्र मार डाले गये हैं। मैं अपनी इस धर्मपत्नी के साथ बारंबार दीनतापूर्वक विलाप कर रहा हूँ। मेरे पिता स्वयं महर्षि व्यास ने मुझे वन में जाने की आज्ञा दे दी है। धर्मज्ञ पुरुषों! धर्म के ज्ञाता राजा युधिष्ठिर ने भी वनवास के लिये अनुमति दे दी है। वही मैं अब पुनः बारंबार आपके सामने मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ। पुण्यात्मा प्रजाजन! आप लोग गान्धारी सहित मुझे वन में जाने की आज्ञा दे दें’। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुरुराज की ये करुणा भरी बातें सुनकर वहाँ एकत्र हुए कुरुजांगल देश के सब लोग दुपट्टों और हाथों से अपना अपना मुँह ढँककर रोने लगे। अपनी संतान को विदा करते समय दुःख से कातर हुए पिता-माता की भाँति वे दो घड़ी तक शोक से संतप्त होकर रोते रहे। उनका हृदय शून्य सा हो गया था। वे उस सूने हृदय से धृतराष्ट्र के प्रवासजनित दुःख को धारण करके अचेत से हो गये। फिर धीरे धीरे उनके वियोगजनित दुःख को दूर करके उन सबने आपस में वार्तालाप किया और अपनी सम्मति प्रकट की।

राजन! तदन्नतर एकमत होकर उन सब लोगों ने थोडे़ में अपनी सारी बातें कहने का भार एक ब्राह्मण पर रखा। उन ब्राह्मण के द्वारा ही उन्होंने राजा से अपनी बात कही। वे ब्राह्मण देवता सदाचारी, सबके माननीय और अर्थ ज्ञान में निपुण थे, उनका नाम था साम्ब। वे वेद के विद्वान, निर्भय होकर बोलने वाले और बुद्धिमान थे। वे महाराज को सम्मान देकर सारी सभा को प्रसन्न करके बोलने को उद्यत हुए। उन्होंने राजा से इस प्रकार कहा- ‘राजन! वीर नरेश्वर! यहाँ उपस्थित हुए समस्त जनसमुदाय ने अपना मन्तव्य प्रकट करने का सारा भार मुझे सौंप दिया है; अतः मैं ही इनकी बातें आपकी सेवा में निवेदन करूँगा। आप सुनने की कृपा करें। राजेन्द्र! प्रभो! आप जो कुछ कहते हैं, वह सब ठीक है। उसमें असत्य का लेश भी नहीं है। वास्तव में इस राजवंश में और हम लोगों में परस्पर दृढ़ सौहार्द स्थापित हो चुका है। इस राजवंश में कभी कोई भी ऐसा राजा नहीं हुआ, तो प्रजापालन करते समय समस्त प्रजाओं को प्रिय न रहा हो। आप लोग पिता और बड़े भाई के समान हमारा पालन करते आये हैं। राजा दुर्योधन ने भी हमारे साथ कोई अनुचित बर्ताव नहीं किया है। महाराज! परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन महर्षि व्यास जी आपको जैसी सलाह देते हैं, वैसा ही कीजिये; क्योंकि वे हम सब लोगों के परम गुरु हैं। राजन! आप जब हमें त्याग देंगे, हमें छोड़कर चले जायँगे, तब हम बहुत दिनों तक दुःख और शोक में डूबे रहेंगे। आपके सैकड़ों गुणों की याद सदा हमें घेरे रहेगी।[1]

पृथ्वीनाथ! महाराज शान्तनु तथा राजा चित्रांगद ने जिस प्रकार हमारी रक्षा की है, भीष्म के पराक्रम से सुरक्षित आपके पिता विचित्रवीर्य ने जिस तरह हम लोगों का पालन किया है तथा आपकी देखरेख में रहकर पृथ्वीपति पाण्डु ने जिस प्रकार प्रजाजनों की रक्षा की है, उसी प्रकार राजा दुर्योधन ने भी हम लोगों का यथावत पालन किया है। नरेश्वर! आपके पुत्र ने कभी थोड़ा सा भी अन्याय हम लोगों के साथ नहीं किया। हम लोग उन राजा दुर्योधन पर भी पिता के समान विश्वास करते थे और उनके राज्य में बड़े सुख से जीवन व्यतीत करते थे। यह बात आपको भी विदित ही है। नरेश्वर! भगवान करें कि बुद्धिमान कुन्तीकुमार राजा युधिष्ठिर धैर्यपूर्वक सहस्रों वर्ष तक हमारा पालन करें और हम उनके राज्य में सुख से रहें। यज्ञों में बड़ी बड़ी दक्षिणा प्रदान करने वाले ये धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर प्राचीन काल के पुण्यात्मा राजर्षि कुरु और संवरण आदि के तथा बुद्धिमान राजा भरत के बर्ताव का अनुसरण करते हैं। महाराज! इनमें कोई छोटे से छोटा दोष भी नहीं है। इनके राज्य में आपके द्वारा सुरक्षित होकर हम लोग सदा सुख से रहते आये हैं। कुरुनन्दन! पुत्रसहित आपका कोई सूक्ष्म से सूक्ष्म अपराध भी हमारे देखने में नहीं आया है। महाभारत युद्ध में जो जाति भाईयों का संहार हुआ है, उसके विषय में आपने जो दुर्योधन के अपराध की चर्चा की है, इसके सम्बन्ध में भी मैं आपसे कुछ निवेदन करूँगा।

कौरवों का जो संहार हुआ है, उसमें न दुर्योधन का हाथ है, न आपका। कर्ण और शकुनि ने भी इसमें कुछ नहीं किया है। हमारी समझ में तो यह दैव का विधान था। इसे कोई टाल नहीं सकता था। दैव को पुरुषार्थ से मिटा देना असम्भव है। महाराज! उस युद्ध में अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थी; किंतु कौरव पक्ष के प्रधान योद्धा भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि तथा महामना कर्ण ने एवं पाण्डव दल के प्रमुख वीर सात्यकि, धृष्टद्युम्न, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव आदि ने अठारह दिनों में ही सबका संहार कर डाला। नरेश्वर! ऐसा विकट संहार दैवीशक्ति के बिना कदापि नहीं हो सकता था। अवश्य ही संग्राम में मनुष्य को विशेषतः क्षत्रिय को समयानुसार शत्रुओं का संहार एवं प्राणोत्सर्ग करना चाहिये। उन विद्या और बाहुबल से सम्पन्न पुरुषसिंहों ने रथ, घोड़े और हाथियों सहित इस सारी पृथ्वी का नाश कर डाला। आपका पुत्र उन महात्मा नरेशों के वध में कारण नहीं हुआ है। इसी प्रकार न आप, न आपके सेवक, न कर्ण और न शकुनि ही इसमें कारण है। कुरुश्रेष्ठ! उस युद्ध में जो सहस्रों राजा काट डाले गये हैं, वह सब दैव की ही करतूत समझिये। इस विषय में दूसरा कोई क्या कह सकता है। आप इस सम्पूर्ण जगत के स्वामी है; इसीलिये हम आपको अपना गुरु मानते हैं और आप धर्मात्मा नरेश को वन में जाने की अनुमति देते हैं तथा आपके पुत्र दुर्योधन के लिये हमारा यह कथन है।[2]

अपने सहायकों सहित राजा दुर्योधन इन श्रेष्ठ द्विजों के आशीर्वाद से वीरलोक प्राप्त करें और स्वर्ग में सुख एवं आनन्द भोगें। आप भी पुण्य एवं धर्म में ऊँची स्थिति प्राप्त करें। आप सम्पूर्ण धर्मों को ठीक ठीक जानते हैं, इसीलिये उत्तम व्रतों के अनुष्ठान में लग जाइये। आप जो हमारी देखरेख करने के लिये हमें पाण्डवों को सौंप रहे हैं, वह सब व्यर्थ है। ये पाण्डव तो स्वर्ग का भी पालन करने में समर्थ हैं; फिर इस भूमण्डल की तो बात ही क्या है। बुद्धिमान कुरुकुलश्रेष्ठ! समस्त पाण्डव शीलरूपी सद्गुण से विभूषित हैं, अतः भले बुरे सभी विषयों में सारी प्रजा निश्चय ही उनका अनुसरण करेगी। ये पृथ्वीनाथ पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर अपने दिये हुए तथा पहले के राजाओं द्वारा अर्पित किये गये ब्राह्मणों के लिये दातव्य अग्रहारों (दान में दिये गये ग्रामों) तथा पारिबर्हों (पुरस्कार में दिये गये ग्रामों) की भी रक्षा करते ही हैं। ये कुन्तीकुमार सदा कुबेर के समान दीर्घदर्शी, कोमल स्वभाव वाले और जितेन्द्रिय हैं। इनके मन्त्री भी उच्च विचार के हैं। इनका हृदय बड़ा ही विशाल है। ये भरतकुलभूषण युधिष्ठिर शत्रुओं पर भी दया करने वाले और परम पवित्र हैं। बुद्धिमान होने के साथ ही ये सबको सरलभाव से देखने वाले हैं और हम लोगों का सदा पुत्रवत पालन करते हैं।

राजर्षे! इन धर्मपुत्र युधिष्ठिर के संसर्ग से भीमसेन और अर्जुन आदि भी इस जनसमुदाय (प्रजावर्ग) का कभी अप्रिय नहीं करेंगे। कुरुनन्दन! ये पाँचों भाई पाण्डव बड़े पराक्रमी, महामनस्वी और पुरवासियों के हितसाधन में लगे रहने वाले हैं। ये कोमल स्वभाव वाले सत्पुरुषों के प्रति मृदुतापूर्ण बर्ताव करते हैं, किंतु तीखे स्वभाव वाले दुष्टों के लिये ये विषधर सर्पों के समान भयंकर बन जाते हैं। कुन्ती, द्रौपदी, उलूपी और सुभद्रा भी कभी प्रजाजनों के प्रति प्रतिकूल बर्ताव नहीं करेंगी। आपका प्रजा के साथ जो स्नेह था, उसे युधिष्ठिर ने और भी बढ़ा दिया है। नगर और जनपद के लोग आप लोगों के इस प्रजा प्रेम की कभी अवहेलना नहीं करेंगे। कुन्ती के महारथी पुत्र स्वयं धर्मपरायण रहकर अधर्मी मनुष्यों का भी पालन करेंगे। अतः पुरुषप्रवर महाराज! आप युधिष्ठिर की ओर से अपने मानसिक दुःख को हटाकर धार्मिक कार्यों के अनुष्ठान में लग जाइये। आपको समस्त प्रजा का नमस्कार है’। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! साम्ब के धर्मानुकूल और उत्तम गुणयुक्त वचन सुनकर समस्त प्रजा उन्हें सादर साधुवाद देने लगी तथा सबने उनकी बात का अनुमोदन किया। धृतराष्ट्र ने भी बारंबार साम्ब के वचनों की सराहना की और सब लोगों से सम्मानित होकर धीरे धीरे सबको विदा कर दिया। उस समय सबने उन्हें शुभ दृष्टि से ही देखा। भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात धृतराष्ट्र ने हाथ जोड़कर उन ब्राह्मण देवता का सत्कार किया और गान्धारी के साथ फिर अपने महल में चले गये। जब रात बीती और सबेरा हुआ, तब उन्होंने जो कुछ किया, उसे बता रहा हूँ, सुनो।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 1-18
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 19-36
  3. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 10 श्लोक 37-53

सम्बंधित लेख

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में उल्लेखित कथाएँ


आश्रमवास पर्व

युधिष्ठिर तथा कुंती द्वारा धृतराष्ट्र और गांधारी की सेवा | पांडवों का धृतराष्ट्र और गांधारी के अनुकूल बर्ताव | धृतराष्ट्र का गांधारी के साथ वन जाने हेतु उद्योग | धृतराष्ट्र का वन जाने हेतु युधिष्ठिर से अनुमति लेने का अनुरोध | युधिष्ठिर और कुंती आदि का दुखी होना | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र को वन जाने हेतु अनुमति देना | धृतराष्ट्र द्वारा युधिष्ठिर को राजनीति का उपदेश | धृतराष्ट्र द्वारा राजनीति का उपदेश | युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र द्वारा राजनीति का उपदेश | धृतराष्ट्र का कुरुजांगल की प्रजा से वन जाने हेतु आज्ञा माँगना | प्रजाजनों से धृतराष्ट्र द्वारा क्षमा प्रार्थना करना | साम्ब ब्राह्मण का धृतराष्ट्र को सान्त्वनापूर्ण उत्तर देना | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर से श्राद्ध के लिए धन मांगना | धृतराष्ट्र के धन मांगने पर अर्जुन की सहमति और भीम का विरोध | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र को यथेष्ट धन देने की स्वीकृति देना | विदुर का धृतराष्ट्र को युधिष्ठिर का उदारतापूर्ण उत्तर सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा मृत व्यक्तियों के लिए श्राद्ध एवं दान-यज्ञ का अनुष्ठान | गांधारी सहित धृतराष्ट्र का वन प्रस्थान | पांडवों के अनुरोध पर भी कुंती का वन जाने का निश्चय | कुंती द्वारा पांडवों के अनुरोध का उत्तर | पांडवों का स्त्रियों सहित निराश लौटना | कुंती सहित गांधारी व धृतराष्ट्र का गंगातट पर निवास | धृतराष्ट्र आदि का गंगातट से कुरुक्षेत्र गमन | धृतराष्ट्र आदि का शतयूप के आश्रम पर निवास | नारद का धृतराष्ट्र की तपस्या विषयक श्रद्धा को बढ़ाना | नारद द्वारा धृतराष्ट्र को मिलने वाली गति का वर्णन | धृतराष्ट्र आदि के लिए पांडवों तथा पुरवासियों की चिंता | कुंती की चिंता से युधिष्ठिर का वन जाने का विचार | युधिष्ठिर के साथ सहदेव और द्रौपदी का वन जाने का उत्साह | युधिष्ठिर का सेना सहित वन प्रस्थान | पांडवों का सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुँचना | पांडवों तथा पुरवासियों का धृतराष्ट्र आदि के दर्शन करना | संजय द्वारा ऋषियों को पांडवों सहित समस्त स्त्रियों का परिचय देना | धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर की बातचीत | विदुर का युधिष्ठिर के शरीर में प्रवेश | युधिष्ठिर आदि का ऋषियों के आश्रम देखना | युधिष्ठिर का कलश आदि बाँटना और धृतराष्ट्र के पास बैठना | युधिष्ठिर आदि के पास ऋषियों सहित व्यास का आगमन | व्यास का धृतराष्ट्र से कुशल-क्षेम पूछना | व्यास का धृतराष्ट्र से विदुर और युधिष्ठिर की धर्मरूपता का प्रतिपादन

पुत्रदर्शन पर्व

धृतराष्ट्र का मृत बान्धवों के शोक से दुखी होना | गांधारी और कुंती का व्यास से मृत पुत्रों के दर्शन का अनुरोध | कुंती का कर्ण के जन्म का गुप्त रहस्य बताने का वर्णन | व्यास द्वारा कुंती को सांत्वना देना | व्यास द्वारा धृतराष्ट्र आदि के पूर्वजन्म का परिचय | व्यास के कहने पर सब लोगों का गंगा तटपर जान | व्यास के प्रभाव से कौरव-पाण्डवों का गंगा नदी से प्रकट होना | परलोक से आये व्यक्तियों का रागद्वेषरहित होकर मिलना | व्यास आज्ञा से विधवा क्षत्राणियों का अपने पतियों के लोक जाना | पुत्रदर्शन पर्व के श्रवण की महिमा | वैशम्पायन द्वारा जनमेजय की शंका का समाधान | व्यास की कृपा से जनमेजय को अपने पिता के दर्शन | व्यास की आज्ञा से धृतराष्ट्र आदि पाण्डवों को विदा करना | पाण्डवों का सदलबल हस्तिनापुर में आना

नारदागमन पर्व

नारद का युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र आदि के दावानल में दग्ध होने का समाचार देना | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र आदि की मृत्यु पर शोक करना | धृतराष्ट्र आदि की मृत्यु पर युधिष्ठिर एवं अन्य पांडवों का विलाप | युधिष्ठिर द्वारा धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की हड्डियों को गंगा में प्रवाहित करना

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः