धृतराष्ट्र के धन मांगने पर अर्जुन की सहमति और भीम का विरोध

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत 11वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने धृतराष्ट्र के धन मांगने पर अर्जुन के सहमत होने और भीम के विरोध करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

अर्जुन की सहमति

वैशम्पायन जी कहते हैं- विदुर जी की बात सुनकर महातेजस्वी भीमसेन ने विदुर जी की बात नहीं स्वीकार की। भीमसेन के उस अभिप्राय को जानकर किरीटधारी अर्जुन कुछ विनीत हो उस नरश्रेष्ठ से इस प्रकार बोले- ‘भैया भीम! राजा धृतराष्ट्र हमारे ताऊ और वृद्ध पुरुष हैं। इस समय वे वनवास की दीक्षा ले चुके हैं और जाने के पहले वे भीष्म आदि समस्त सुहृदों का और्ध्‍वदेहिक श्राद्ध कर लेना चाहते हैं। महाबाहो! कुरुपति धृतराष्ट्र आपके द्वारा जीते गये धन को आपसे माँगकर उसे भीष्म आदि के लिये देना चाहते हैं; अतः आपको इसके लिये स्वीकृति दे देनी चाहिये। महाबाहो! सौभाग्य की बात है कि आज राजा धृतराष्ट्र हम लोगों से धन की याचना करते हैं। समय का उलटफेर तो देखिये। पहले हम लोग जिनसे याचना करते थे, आज वे ही हमसे याचना करते हैं। एक दिन जो सम्पूर्ण भूमण्डल का भरण पोषण करने वाले नरेश थे, उनके सारे मन्त्री और सहायक शत्रुओं द्वारा मार डाले गये और आज वे वन में जाना चाहते हैं। पुरुषसिंह! अतः आप उन्हें धन देने के सिवा दूसरा कोई दृष्टिकोण न अपनावें। महाबाहो! उनकी याचना ठुकरा देने से बढ़कर हमारे लिये और कोई कलंक की बात न होगी। उन्हें धन न देने से हमें अधर्म का भी भागी होना पड़ेगा। आप अपने बड़े भाई ऐश्वर्यशाली महाराज युधिष्ठिर के बर्ताव से शिक्षा ग्रहण करें। भरतश्रेष्ठ! आप भी दूसरों को देने के ही योग्य हैं; दूसरों से लेने के योग्य नहीं’। ऐसी बात कहते हुए अर्जुन की धर्मराज युधिष्ठिर ने भूरी भूरी प्रशंसा की।

भीम द्वारा विदुर की बात का विरोध करना

तब भीमसेन ने कुपित होकर उनसे यह बात कही- ‘अर्जुन! हम लोग स्वयं ही भीष्म, राजा सोमदत्त, भूरिश्रवा, राजर्षि बाह्लीक, महात्मा द्रोणाचार्य तथा अन्य सब सम्बन्धियों का श्राद्ध करेंगे। हमारी माता कुन्ती कर्ण के लिये पिण्डदान करेगी।[1] पुरुषसिंह! मेरा यही विचार है कि कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र उक्त महानुभावों का श्राद्ध न करें। इसके लिये हमारे शत्रु हमारी निन्दा न करें। जिन कुलांगारों ने इस सारी पृथ्वी का विनाश कर डाला, वे दुर्योधन आदि सब लोग भारी से भारी कष्ट में पड़ जायँ। तुम वह पुराना वैर, वह बारह वर्षों का वनवास और द्रौपदी के शोक को बढ़ाने वाला एक वर्ष का गहन अज्ञातवास सहसा भूल कैसे गये? उन दिनों धृतराष्ट्र का हमारे प्रति स्नेह कहाँ चला गया था? जब तुम्हारे आभरण एवं आभूषण उतार लिये गये और तुम काले मृगचर्म से अपने शरीर को ढँककर द्रौपदी के साथ राजा के समीप गये, उस समय द्रोणाचार्य और भीष्म कहाँ थे? सोमदत्त भी कहाँ चले गये थे। जब तुम सब लोग तेरह वर्षों तक वन में जंगली फल-मूल खाकर किसी तरह जी रहे थे, उन दिनों तुम्हारे ये ताऊ जी पिता के भाव से तुम्हारी ओर नहीं देखते थे। पार्थ! क्या तुम उस बात को भूल गये, जबकि यह कुलांगार दुर्बुद्धि धृतराष्ट्र जुआ आरम्भ कराकर विदुर जी से बार-बार पूछता था कि इस दाँव में हम लोगों ने क्या जीता है? भीमसेन को ऐसी बातें करते देख बुद्धिमान कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने उन्हें डाँटकर कहा- ‘चुप रहो’।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-17
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 11 श्लोक 18-25

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धृतराष्ट्र का मृत बान्धवों के शोक से दुखी होना | गांधारी और कुंती का व्यास से मृत पुत्रों के दर्शन का अनुरोध | कुंती का कर्ण के जन्म का गुप्त रहस्य बताने का वर्णन | व्यास द्वारा कुंती को सांत्वना देना | व्यास द्वारा धृतराष्ट्र आदि के पूर्वजन्म का परिचय | व्यास के कहने पर सब लोगों का गंगा तटपर जान | व्यास के प्रभाव से कौरव-पाण्डवों का गंगा नदी से प्रकट होना | परलोक से आये व्यक्तियों का रागद्वेषरहित होकर मिलना | व्यास आज्ञा से विधवा क्षत्राणियों का अपने पतियों के लोक जाना | पुत्रदर्शन पर्व के श्रवण की महिमा | वैशम्पायन द्वारा जनमेजय की शंका का समाधान | व्यास की कृपा से जनमेजय को अपने पिता के दर्शन | व्यास की आज्ञा से धृतराष्ट्र आदि पाण्डवों को विदा करना | पाण्डवों का सदलबल हस्तिनापुर में आना

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