प्रजाजनों से धृतराष्ट्र द्वारा क्षमा प्रार्थना करना

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत नौवें अध्याय में वैशम्पायन जी ने कुरुजांगल की प्रजा से धृतराष्ट्र द्वारा क्षमा प्रार्थना करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

धृतराष्ट्र द्वारा क्षमा प्रार्थना कर जाने की आज्ञा मांगना

धृतराष्ट्र बोले- 'सज्जनों! महाराज शान्तनु ने इस पृथ्वी का यथावत रूप से पालन किया था। उसके बाद भीष्म द्वारा सुरक्षित हमारे तत्त्वज्ञ पिता विचित्रवीर्य ने इस भूण्डल की रक्षा की; इसमें संशय नहीं है। उनके बाद मेरे भाई पाण्डु ने इस राज्य का यथावत रूप से पालन किया। इसे आप सब लोग जानते हैं। अपने प्रजापालन रूपी गुण के कारण ही वे आप लोगों के परमप्रिय हो गये थे। निष्पाप महाभागगण! पाण्डु के बाद मैंने भी आप लोगों को भली या बुरी सेवा की है, उसमें जो भूल हुई हो, उसके लिये आप आलस्य रहित प्रजाजन मुझे क्षमा करें। दुर्योधन ने जब अकण्टक राज्य का उपभोग किया था, उस समय उस खोटी बुद्धि वाले मूर्ख नरेश ने भी आप लोगों का कोई अपराध नहीं किया था (वह केवल पाण्डवों के साथ अन्याय करता रहा)। उस दुर्बद्धि के अपने ही किये हुए अन्याय, अपराध और अभिमान से यहाँ असंख्य राजाओं का महान संहार हो गया। सारे कौरव मारे गये और पृथ्वी का विनाश हो गया। उस अवसर पर मुझसे भला या बुरा जो कुछ भी कृत्य हो गया, उसे आप लोग अपने मन में न लावें। इसके लिये मैं आप लोगों से हाथ जोड़कर क्षमा प्रार्थना करता हूँ। यह राजा धृतराष्ट्र बूढ़ा है। इसके पुत्र मारे गये हैं; अतः यह दुःख में डूबा हुआ है और यह अपने प्राचीन राजाओं का वंशज है,ऐसा समझकर आप लोग मेरे अपराधों को क्षमा करते हुए मुझे वन में जाने की आज्ञा दें। यह बेचारी वृद्धा तपस्विनी गान्धारी, जिसके सभी पुत्र मारे गये हैं तथा जो पुत्र शोक से व्याकुल रहती हैं, मेरे साथ आप लोगों से क्षमा याचना करती है। इन दोनों बूढ़ों को पुत्रों के मारे जाने से दुःखी जानकर आप लोग वन में जाने की आज्ञा दें। आपका कल्याण हो।

हम दोनों आपकी शरण में आये हैं। ये कुरुकुलरत्न कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर आप लोगों के पालक हैं। अच्छे और बुरे सभी समयों में आप सब लोग इन पर कृपा दृष्टि रखें। ये कभी आप लोगों के प्रति विषमभाव नहीं रखेंगे। लोकपालों के समान महातेजस्वी तथा सम्पूर्ण धर्म और अर्थ के मर्मज्ञ ये चार भाई जिनके सचिव है, वे भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव से घिरे हुए महाबाहु महातेजस्वी युधिष्ठिर सम्पूर्ण जीव जगत के स्वामी भगवान ब्रह्मा की भाँति आप लोगों का इसी तरह पालन करेंगे, जैसे पहले के लोग करते आये हैं। मुझे ये बातें अवश्य कहनी चाहिये, ऐसा सोचकर ही मैं आप लोगों से यह सब कहता हूँ। मैं इन राजा युधिष्ठिर को धरोहर के रूप में आप सब लोगों के हाथ सौंप रहा हूँ और आप लोगों को भी इन वीर नरेश के हाथ में धरोहर की ही भाँति दे रहा हूँ। मेरे पुत्रों ने तथा मुझसे सम्बन्ध रखने वाले और किसी ने आप लोगों का जो कुछ भी अपराध किया हो, उसके लिये मुझे क्षमा करें और जाने की आज्ञा दें। आप लोगों ने पहले मुझ पर किसी तरह का कोई रोष नहीं प्रकट किया है। आप लोग अत्यन्त गुरुभक्त हैं; अतः आपके सामने मेरे ये दोनों हाथ जुडे़ हुए हैं और मैं आपको यह प्रणाम करता हूँ। निष्पाप प्रजाजन! मेरे पुत्रों की बुद्धि चंचल थी। वे लोभी और स्वेच्छाचारी थे। उनके अपराधों के लिये आज गान्धारी सहित मैं आप सब लोगों से क्षमा याचना करता हूँ'। धृतराष्ट्र के इस प्रकार कहने पर नगर और जनपद में निवास करने वाले सब लोग नेत्रों से आँसू बहाते हुए एक दूसरे का मुँह देखने लगे। किसी ने उत्तर नहीं दिया।


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 9 श्लोक 1-18

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