पाण्डवों का सदलबल हस्तिनापुर में आना

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में पुत्रदर्शन पर्व के अंतर्गत अध्याय 36 में पाण्डवों का सदलबल हस्तिनापुर में आने का वर्णन हुआ है।[1]

पाण्डवों का हस्तिनापुर में आने का वर्णन

‘महाबाहो! आज से पितरों के पिण्ड का, सुयश का और इस कुल का भार भी तुम्हारे ही ऊपर है। पुत्र! आज या कल अवश्य चले जाओ; विलम्ब न करना। ‘भरतश्रेष्ठ! प्रभो! तुमने राजनीति बहुत बार सुनी है; अतः तुम्हें संदेश देने लायक कोई बात मुझे नहीं दिखायी देती। तुमने मेरे लिये बहुत कुछ किया है। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब राजा धृतराष्ट्र ने वैसी बात कही, तब युधिष्ठिर ने उनसे इस प्रकार कहा– ‘धर्म के ज्ञाता महाराज! आप मेरा परित्‍याग न करें, क्योंकि मैं सर्वथा निरपराध हूँ। ‘मेरे ये सब भाई और सेवक इच्छा हो तो चले जायँ; किंतु मैं नियम और व्रत का पालन करता हुआ आप की तथा इन दोनों माताओं की सेवा करूँगा। यह सुनकर गान्धारी ने कहा- ‘बेटा! ऐसी बात न कहो। मैं जो कहती हूँ उसे सुनो। यह सारा कुरुकुल तुम्हारे ही अधीन है।

कुन्ती कथन

मेरे श्वशुर का पिण्ड भी तुम पर ही अवलम्बित है; अतः पुत्र! तुम जाओ, तुम ने हमारे लिये जितना किया है, वही बहुत है। तुम्हारे द्वारा हम लोगों का स्वागत-सत्कार भली-भाँति हो चुका है। इस समय महाराज जो आज्ञा दे रहे हैं, वही करो; क्योंकि पिता का वचन मानना तुम्हारा कर्तव्य है।’ वैशम्पायन जी कहते हैं– राजन! गान्धारी के इस प्रकार आदेश देने पर राजा युधिष्ठिर ने अपने आँसू भरे नेत्रों को पोंछकर रोती हुई कुन्ती से कहा– ‘माँ! राजा और यशस्विनी गान्धारी देवी भी मुझे घर लौटने की आज्ञा दे दी रही हैं; किंतु मेरा मन आप में लगा हुआ है। जाने का नाम सुन कर ही मैं बहुत दुखी हो जाता हूँ। ऐसी दशा में मैं कैसे जा सकूँगा? ‘धर्मचारिणि! मैं आप की तपस्या में विघ्न डालना नहीं चाहता; क्योंकि तप से बढ़कर कुछ नहीं है। (निष्काम भावपूर्वक) तपस्या से परब्रह्म परमात्मा की भी प्राप्ति हो जाती ही है।
‘रानी माँ! अब मेरा मन भी पहले की तरह राजकाज में नही लगता है। हर तरह से तपस्या करने को ही जी चाहता है। ‘शुभे! यह सारी पृथ्वी मेरे लिये सूनी हो गयी है; अतः इस से मुझे प्रसन्नता नहीं होती। हमारे सगे-सम्बन्धी नष्ट हो गये; अब हमारे पास पहले की तरह सैन्यबल भी नहीं है। ‘पांचालों का तो सर्वथा नाश ही हो गया। उनकी कथा मात्र शेष रह गयी है। शुभे! अब मुझे कोई ऐसा नहीं दिखायी देता, जो उनके वंश को चलाने वाला हो। ‘प्रायः द्रोणाचार्य ने ही सब को समरांगण में भस्म कर डाला था। जो थोड़े-से बच गये थे, उन्हें द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने रात को सोते समय मार डाला। ‘हमारे सम्बन्धी चेदि और मत्स्य देश के लोग भी जैसे पहले देखे गये थे, वैसे ही अब नहीं रहे। केवल भगवान श्रीकृष्ण के आश्रय से वृष्णिवंशी वीरों का समुदाय अब तक सुरक्षित है। ‘उसे ही देखकर अब मैं केवल धर्म सम्पादन की इच्छा से यहाँ रहना चाहता हूँ, धन के लिये नहीं। तुम हम सब लोगों की ओर कल्याणमयी दृष्टि से देखो; क्योंकि तुम्हारा दर्शन हम लोगों के लिये अब दुर्लभ हो जायगा। कारण कि राजा धृतराष्ट्र अब बड़ी कठोर और असह्य तपस्या आरम्भ करेंगे। यह सुनकर योद्धाओं के स्वामी महाबाहु सहदेव अपने दोनों नेत्रों में आँसू भरकर युधिष्ठिर से इस प्रकार बोले।[1]

पाण्डवों का धृतराष्ट्र से विदा लेना

‘भरतश्रेष्ठ! मुझ में माता जी को छोड़कर जाने का साहस नहीं है। प्रभो! आप शीघ्र लौट जायँ। मैं यहीं रहकर तपस्या करूँगा और तप के द्वारा अपने शरीर को सुखा डालूँगा। मैं यहाँ महाराज और इन दोनों माताओं के चरणों की सेवा में ही अनुरक्त रहना चाहता हूँ।’ यह सुनकर कुन्ती ने महाबाहु सहदेव को छाती से लगा लिया और कहा– ‘बेटा! ऐसा न कहो। तुम मेरी बात मानो और चले जाओ। पुत्रो! तुम्हारे मार्ग कल्याणकारी हों और तुम सदा स्वस्थ रहो। ‘तुम लोगों के रहने से हम लोगों की तपस्या में विघ्‍न पड़ेगा। मैं तुम्हारे स्नेहपाश में बँधकर उत्तम तपस्या से गिर जाऊँगा, अतः सामर्थ्‍यशाली पुत्र! चले जाओ। अब हम लोगों की आयु बहुत थोड़ी रह गयी है।’ राजेन्द्र! इस तरह अनेक प्रकार की बातें कहकर कुन्ती ने सहदेव तथा राजा युधिष्ठिर के मन को धीरज बँधाया। माता तथा धृतराष्ट्र की आज्ञा पाकर कुरुश्रेष्ठ पाण्डवों ने कुरुकुल तिलक धृतराष्ट्र को प्रणाम किया और उन से विदा लेने के लिये इस प्रकार कहा- युधिष्ठिर बोले- महाराज! आप के आशीर्वाद से आनन्दित होकर हम लोग कुशल पूर्वक राजधानी लौट जायँगे।
राजन्! इस के लिये आप हमें आज्ञा दें। आप की आज्ञा पाकर हम पापरहित हो यहाँ से यात्रा करेंगे। महात्मा धर्मराज के ऐसा कहने पर राजर्षि धृतराष्ट्र ने कुरुनन्दन युधिष्ठिर का अभिनन्दन करके उन्हें जाने की आज्ञा दे दी। इस के बाद राजा धृतराष्ट्र ने बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन को सान्त्वना दी। बुद्धिमान एंव पराक्रमी भीमसेन ने भी उनकी बातों को यथार्थरूप से ग्रहण किया- हृदय से स्‍वीकार किया। तदनन्तर धृतराष्ट्र ने अर्जुन और पुरुष प्रवर नकुल-सहदेव को छाती से लगा उनका अभिनन्दन करके विदा किया। इस के बाद उन पाण्डवों ने गान्धारी के चरणों में प्रणाम करके उन की आज्ञा ली।
फिर माता कुन्ती ने उन्हें हृदय से लगाकर उनका मस्तक सूँघा। जैसे बछड़े अपनी माता का दूध पीने से रोके जाने पर बार-बार उस की ओर देखते हुए उस के चारों ओर चक्कर लगातें हैं, उसी प्रकार पाण्डवों ने राजा तथा माता की ओर बार-बार देखते हुए उन नरेश की परिक्रमा की। द्रौपदी आदि समस्त कौरव स्त्रियों ने अपने श्वशुर को न्यायपूर्वक प्रणाम किया। फिर दोनों सासुओं ने उन्हें गले से लगाकर आशीर्वाद दे, जाने की आज्ञा दी और उन्हें उनके कर्तव्य का उपदेश भी दिया। तत्पश्चात् वे अपने पतियों के साथ चली गयीं। तदनन्तर सारथियों ‘रथ जोतो, रथ जोतो’ की पुकार मचायी। फिर ऊँटों के चिग्घाड़ने और घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज हुई। इस के बाद अपने घर की स्त्रियों, भाइयों और सैनिकों के साथ राजा युधिष्ठिर पुनः हस्तिनापुर नगर को लौट आये।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 36 श्लोक 21-36
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 36 श्लोक 37-53

सम्बंधित लेख

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में उल्लेखित कथाएँ


आश्रमवास पर्व

युधिष्ठिर तथा कुंती द्वारा धृतराष्ट्र और गांधारी की सेवा | पांडवों का धृतराष्ट्र और गांधारी के अनुकूल बर्ताव | धृतराष्ट्र का गांधारी के साथ वन जाने हेतु उद्योग | धृतराष्ट्र का वन जाने हेतु युधिष्ठिर से अनुमति लेने का अनुरोध | युधिष्ठिर और कुंती आदि का दुखी होना | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र को वन जाने हेतु अनुमति देना | धृतराष्ट्र द्वारा युधिष्ठिर को राजनीति का उपदेश | धृतराष्ट्र द्वारा राजनीति का उपदेश | युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र द्वारा राजनीति का उपदेश | धृतराष्ट्र का कुरुजांगल की प्रजा से वन जाने हेतु आज्ञा माँगना | प्रजाजनों से धृतराष्ट्र द्वारा क्षमा प्रार्थना करना | साम्ब ब्राह्मण का धृतराष्ट्र को सान्त्वनापूर्ण उत्तर देना | धृतराष्ट्र का युधिष्ठिर से श्राद्ध के लिए धन मांगना | धृतराष्ट्र के धन मांगने पर अर्जुन की सहमति और भीम का विरोध | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र को यथेष्ट धन देने की स्वीकृति देना | विदुर का धृतराष्ट्र को युधिष्ठिर का उदारतापूर्ण उत्तर सुनाना | धृतराष्ट्र द्वारा मृत व्यक्तियों के लिए श्राद्ध एवं दान-यज्ञ का अनुष्ठान | गांधारी सहित धृतराष्ट्र का वन प्रस्थान | पांडवों के अनुरोध पर भी कुंती का वन जाने का निश्चय | कुंती द्वारा पांडवों के अनुरोध का उत्तर | पांडवों का स्त्रियों सहित निराश लौटना | कुंती सहित गांधारी व धृतराष्ट्र का गंगातट पर निवास | धृतराष्ट्र आदि का गंगातट से कुरुक्षेत्र गमन | धृतराष्ट्र आदि का शतयूप के आश्रम पर निवास | नारद का धृतराष्ट्र की तपस्या विषयक श्रद्धा को बढ़ाना | नारद द्वारा धृतराष्ट्र को मिलने वाली गति का वर्णन | धृतराष्ट्र आदि के लिए पांडवों तथा पुरवासियों की चिंता | कुंती की चिंता से युधिष्ठिर का वन जाने का विचार | युधिष्ठिर के साथ सहदेव और द्रौपदी का वन जाने का उत्साह | युधिष्ठिर का सेना सहित वन प्रस्थान | पांडवों का सेना सहित कुरुक्षेत्र पहुँचना | पांडवों तथा पुरवासियों का धृतराष्ट्र आदि के दर्शन करना | संजय द्वारा ऋषियों को पांडवों सहित समस्त स्त्रियों का परिचय देना | धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर की बातचीत | विदुर का युधिष्ठिर के शरीर में प्रवेश | युधिष्ठिर आदि का ऋषियों के आश्रम देखना | युधिष्ठिर का कलश आदि बाँटना और धृतराष्ट्र के पास बैठना | युधिष्ठिर आदि के पास ऋषियों सहित व्यास का आगमन | व्यास का धृतराष्ट्र से कुशल-क्षेम पूछना | व्यास का धृतराष्ट्र से विदुर और युधिष्ठिर की धर्मरूपता का प्रतिपादन

पुत्रदर्शन पर्व

धृतराष्ट्र का मृत बान्धवों के शोक से दुखी होना | गांधारी और कुंती का व्यास से मृत पुत्रों के दर्शन का अनुरोध | कुंती का कर्ण के जन्म का गुप्त रहस्य बताने का वर्णन | व्यास द्वारा कुंती को सांत्वना देना | व्यास द्वारा धृतराष्ट्र आदि के पूर्वजन्म का परिचय | व्यास के कहने पर सब लोगों का गंगा तटपर जान | व्यास के प्रभाव से कौरव-पाण्डवों का गंगा नदी से प्रकट होना | परलोक से आये व्यक्तियों का रागद्वेषरहित होकर मिलना | व्यास आज्ञा से विधवा क्षत्राणियों का अपने पतियों के लोक जाना | पुत्रदर्शन पर्व के श्रवण की महिमा | वैशम्पायन द्वारा जनमेजय की शंका का समाधान | व्यास की कृपा से जनमेजय को अपने पिता के दर्शन | व्यास की आज्ञा से धृतराष्ट्र आदि पाण्डवों को विदा करना | पाण्डवों का सदलबल हस्तिनापुर में आना

नारदागमन पर्व

नारद का युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र आदि के दावानल में दग्ध होने का समाचार देना | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र आदि की मृत्यु पर शोक करना | धृतराष्ट्र आदि की मृत्यु पर युधिष्ठिर एवं अन्य पांडवों का विलाप | युधिष्ठिर द्वारा धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की हड्डियों को गंगा में प्रवाहित करना

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः