पांडवों तथा पुरवासियों का धृतराष्ट्र आदि के दर्शन करना

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत 24वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने पांडवों तथा पुरवासियों के कुंती, गांधारी और धृतराष्ट्र के दर्शन करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

पांडवों तथा पुरवासियों का कुंती, गांधारी और धृतराष्ट्र से मिलना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर वे समस्त पाण्डव दूर से ही अपनी सवारियों से उतर पड़े और पैदल चलकर बड़ी विनय के साथ राजा के आश्रम पर आये। साथ आये हुए समस्त सैनिक, राज्य के निवासी मनुष्य तथा कुरुवंश के प्रधान पुरुषों की स्त्रियाँ भी पैदल ही आश्रम तक गयीं। धृतराष्ट्र का वह पवित्र आश्रम मनुष्यों से सूना था। उसमें सब और मृगों के झुंड विचर रहे थे और केले का सुन्दर उद्यान उस आश्रम की शोभा बढ़ाता था। पाण्डव लोग ज्यों ही उस आश्रम में पहुँचे त्यों ही वहाँ नियमपूर्वक व्रतों का पालन करने वाले बहुत से तपस्वी कौतूहलवश वहाँ पधारे हुए पाण्डवों को देखने के लिये आ गये। उस समय राजा युधिष्ठिर ने उन सब को प्रणाम करके नेत्रों में आँसू भरकर उन सबसे पूछा- ‘मुनिवरों! कौरववंश का पालन करने वाले हमारे ज्येष्ठ पिता इस समय कहाँ गये हैं?’ उन्होंने उत्तर दिया- ‘प्रभो! वे यमुना में स्नान करने, फूल लाने और पानी का घड़ा भरने के लिये गये हुए हैं’। यह सुनकर उन्हीं के बताये हुए मार्ग से वे सब के सब पैदल ही यमुना तट की ओर चल दिये। कुछ ही दूर जाने पर उन्होंने उन सब लोगों को वहाँ से आते देखा। फिर तो समस्त पाण्डव अपने ताऊ के दर्शन की इच्छा से बड़ी उतावली के साथ आगे बढे़। बुद्धिमान सहदेव तो बड़े वेग से दौडे़ और जहाँ कुन्ती थी, वहाँ पहुँचकर माता के दोनों चरण पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगे। कुन्ती ने भी जब अपने प्यारे पुत्र सहदेव को देखा तो उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह चली। उन्होंने दोनो हाथों से पुत्र को उठाकर छाती से लगा लिया और गान्धारी से कहा- ‘दीदी! सहदेव आपकी सेवा में उपस्थित है’।

तदनन्तर राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल को देखकर कुन्ती देवी बड़ी उतावली के साथ उनकी ओर चलीं। वे आगे-आगे चलती थीं और उन पुत्रहीन दम्पति को अपने साथ खींचे लाती थीं। उन्हें देखते ही पाण्डव उनके चरणों में पृथ्वी पर गिर पड़े। महामना बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र ने बोलने के स्वर से और स्पर्श से पाण्डवों को पहचानकर उन सबको आश्वासन दिया। तत्पश्चात् अपने नेत्रों के आँसू पोंछकर महात्मा पाण्डवों ने गान्धारी सहित राजा धृतराष्ट्र तथा माता कुन्ती के विधिपूर्वक प्रणाम किया। इसके बाद माता से बार-बार सान्त्वना पाकर जब पाण्डव कुछ स्वस्थ एवं सचेत हुए तब उन्होंने उन सबके हाथ से जल के भरे हुए कलश स्वयं ले लिये। तदनन्तर उन पुरुष सिंहों की स्त्रियों तथा अन्तःपुर की दूसरी स्त्रियों ने और नगर एवं जनपद के लोगों ने भी क्रमशः राजा धृतराष्ट्र का दर्शन किया। उस समय स्वयं राजा युधिष्ठिर ने एक-एक व्यक्ति का नाम और गोत्र बताकर परिचय दिया और परिचय पाकर धृतराष्ट्र ने उन सबका वाणी द्वारा सत्कार किया। उन सबसे घिरे हुए राजा धृतराष्ट्र अपने नेत्रों से हर्ष के आँसू बहाने लगे। उस समय उन्हें ऐसा जान पड़ा मानो मैं पहले की भाँति हस्तिनापुर के राजमहल में बैठा हूँ। तत्पश्चात् द्रौपदी आदि बहुओं ने गान्धारी और कुन्ती सहित बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र को प्रणाम किया और उन्होंने भी उन सबको आशीर्वाद देकर प्रसन्न किया। इसके बाद वे सबके साथ सिद्ध और चारणों से सेवित अपने आश्रम पर आये। उस समय उनका आश्रम तारों से व्याप्त हुए आकाश की भाँति दर्शकों से भरा था।


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 24 श्लोक 1-20

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महाभारत आश्रमवासिक पर्व में उल्लेखित कथाएँ


आश्रमवास पर्व

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पुत्रदर्शन पर्व

धृतराष्ट्र का मृत बान्धवों के शोक से दुखी होना | गांधारी और कुंती का व्यास से मृत पुत्रों के दर्शन का अनुरोध | कुंती का कर्ण के जन्म का गुप्त रहस्य बताने का वर्णन | व्यास द्वारा कुंती को सांत्वना देना | व्यास द्वारा धृतराष्ट्र आदि के पूर्वजन्म का परिचय | व्यास के कहने पर सब लोगों का गंगा तटपर जान | व्यास के प्रभाव से कौरव-पाण्डवों का गंगा नदी से प्रकट होना | परलोक से आये व्यक्तियों का रागद्वेषरहित होकर मिलना | व्यास आज्ञा से विधवा क्षत्राणियों का अपने पतियों के लोक जाना | पुत्रदर्शन पर्व के श्रवण की महिमा | वैशम्पायन द्वारा जनमेजय की शंका का समाधान | व्यास की कृपा से जनमेजय को अपने पिता के दर्शन | व्यास की आज्ञा से धृतराष्ट्र आदि पाण्डवों को विदा करना | पाण्डवों का सदलबल हस्तिनापुर में आना

नारदागमन पर्व

नारद का युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र आदि के दावानल में दग्ध होने का समाचार देना | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र आदि की मृत्यु पर शोक करना | धृतराष्ट्र आदि की मृत्यु पर युधिष्ठिर एवं अन्य पांडवों का विलाप | युधिष्ठिर द्वारा धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की हड्डियों को गंगा में प्रवाहित करना

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