धृतराष्ट्र का गांधारी के साथ वन जाने हेतु उद्योग

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत तीसरे अध्याय में वैशम्पायन जी ने धृतराष्ट्र का गांधारी के साथ वन जाने हेतु उद्योग करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

धृतराष्ट्र का गांधारी के साथ वन जाने हेतु उद्योग

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र में जो पारस्परिक प्रेम था, उसमें राज्य के लोगों ने कभी कोई अन्तर नहीं देखा। राजन! परंतु वे कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र जब अपने दुर्बुद्धि पुत्र दुर्योधन का स्मरण करते थे, तब मन-ही-मन भीमसेन का अनिष्ट चिन्तन किया करते थे। राजेन्द्र! उसी प्रकार भीमसेन भी सदा ही राजा धृतराष्ट्र के प्रति अपने मन में दुर्भावना रखते थे। वे कभी उन्हें क्षमा नहीं कर पाते थे। भीमसेन गुप्त रीति से धृतराष्ट्र को अप्रिय लगने वाले काम किया करते थे तथा अपने द्वारा नियुक्त किये हुए कृतज्ञ पुरुषों से उनकी आज्ञा भी भंग करा दिया करते थे। राजा धृतराष्ट्र की जो दुष्टतापूर्ण मन्त्रणाएँ होती थीं और तदनुसार ही जो उनके कई दुर्बर्ताव हुए थे, उन्हें सदा भीमसेन याद रखते थे। एक दिन अमर्ष में भरे हुए भीमसेन ने अपने मित्रों के बीच में बारंबार अपनी भुजाओं पर ताल ठोंक और धृतराष्ट्र एवं गांधारी को सुनाते हुए रोषपूर्वक यह कठोर वचन कहा। वे अपने शत्रु दुर्योधन, कर्ण और दुःशासन को याद करके यों कहने लगे- "मित्रों! मेरी भुजाएँ परिघ के समान सुदृढ़ हैं। मैंने ही उस अंधे राजा के समस्त पुत्रों को, जो नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्रों द्वारा युद्ध करते थे, यमलोक का अतिथि बनाया है। देखो, ये मेरे दोनों परिघ के समान सुदृढ़ एवं दुर्जय बाहुदण्ड; जिनके बीच में पकड़कर धृतराष्ट्र के बेटे पिस गये हैं। ये मेरी दोनों भुजाएँ चन्दन से चर्चित एवं चन्दन लगाने के ही योग्य हैं, जिनके द्वारा पुत्रों और बन्धु-बान्धवों सहित राजा दुर्योधन नष्ट कर दिया गया।"

ये तथा और भी नाना प्रकार की भीमसेन की कही हुई कठोर बातें जो हृदय में काँटों के समान कसक पैदा करने वाली थीं, राजा धृतराष्ट्र ने सुनीं। सुनकर उन्हें बड़ा खेद हुआ। समय के उलट फेर को समझने और समस्त धर्मों को जानने वाली बुद्धिमती गांधारी देवी ने भी इन कठोर वचनों को सुना था। उस समय तक उन्हें राजा युधिष्ठिर के आश्रय में रहते हुए पंद्रह वर्ष व्यतीत हो चुके थे। पंद्रहवाँ वर्ष बीतने पर भीमसेन के वाग्बाणों से पीड़ित हुए राजा धृतराष्ट्र को खेद एवं वैराग्य हुआ। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर को इस बात की जानकारी नहीं थी। अर्जुन, कुन्ती तथा यशस्विनी द्रौपदी को भी इसका पता नहीं था। धर्म के ज्ञाता माद्रीपुत्र नकुल-सहदेव सदा राजा धृतराष्ट्र के मनोनुकूल ही बर्ताव करते थे। वे उनका मन रखते हुए कभी कोई अप्रिय बात नहीं कहते थे। तदनन्तर धृतराष्ट्र ने अपने मित्रों को बुलवाया और नेत्रों में आँसू भरकर अत्यन्त गद्गद वाणी में इस प्रकार कहा। धृतराष्ट्र बोले- 'मित्रों! आप लोगों को यह मालूम ही है कि कौरव वंश का विनाश किस प्रकार हुआ है। समस्त कौरव इस बात को जानते हैं कि मेरे ही अपराध से सारा अनर्थ हुआ है।[1] दुर्योधन की बुद्धि में दुष्टता भरी थी। वह जाति भाईयों का भय बढ़ाने वाला था तो भी मुझ मूर्ख ने उसे कौरवों के राजसिंहासन पर अभिषिक्त कर दिया। मैंने वसुदेवनन्दन भगवान श्रीकृष्ण की अर्थभरी बातें नहीं सुनीं। मनीषी पुरुषों ने मुझे यह हित की बात बतायी थी कि इस खोटी बुद्धि वाले पापी दुर्योधन को मन्त्रियों सहित मार डाला जाये, इसी में संसार का हित है; किंतु पुत्र स्नेह के वशीभूत होकर मैंने ऐसा नहीं किया। विदुर, भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, महात्मा भगवान व्यास, संजय और गांधारी देवी ने भी मुझे पग-पग पर उचित सलाह दी, किंतु मैंने किसी की बात नहीं मानी। यह भूल मुझे सदा संताप देती रहती है।

महात्मा पांडव गुणवान हैं तथापि उनके बाप दादों की यह उज्ज्वल सम्पत्ति भी मैंने उन्हें नहीं दी। समस्त राजाओं का विनाश देखते हुए गदाग्रज भगवान श्रीकृष्ण ने यही परम कल्याणकारी माना कि मैं पांडवों का राज्य उन्हें लौटा दूँ; परंतु मैं वैसा नहीं कर सका। इस तरह अपनी की हुई हज़ारों भूलें मैं अपने हृदय में धारण करता हूँ, जो इस समय काँटों के समान कसक पैदा करती हैं। विशेषतः पंद्रहवें वर्ष में आज मुझ दुर्बुद्धि की आँखे खुली हैं और अब मैं इस पाप की शुद्धि के लिये नियम का पालन करने लगा हूँ। कभी चौथे समय (अर्थात दो दिन पर) और कभी आठवें समय अर्थात चार दिन पर केवल भूख की आग बुझाने के लिये मैं थोड़ा सा आहार करता हूँ। मेरे इस नियम को केवल गांधारी देवी जानती हैं। अन्य सब लोगों को यही मालूम है कि मैं प्रतिदिन पूरा भोजन करता हूँ। लोग युधिष्ठिर के भय से मेरे पास आते हैं। पाण्डुपत्र युधिष्ठिर मुझे आराम देने के लिये अत्यन्त चिन्तित रहते हैं। मैं और यशस्विनी गांधारी दोनों नियम पालन के व्याज से मृगचर्म पहन कुशासन पर बैठकर मन्त्र जप करते और भूमि पर सोते हैं। हम दोनों के युद्ध में पीठ न दिखाने वाले सौ पुत्र मारे गये हैं, किंतु उनके लिये मुझे दुःख नहीं हैं, क्योंकि वे क्षत्रिय धर्म को जानते थे (और उसी के अनुसार उन्होंने युद्ध में प्राणत्याग किया है)।

अपने सुहृदों से ऐसा कहकर धृतराष्ट्र राजा युधिष्ठिर से बोले- 'कुन्तीनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। तुम मेरी यह बात सुनो। बेटा! तुम्हारे द्वारा सुरक्षित होकर मैं यहाँ बड़े सुख से रहा हूँ। मैंने बड़े-बड़े दान दिये हैं और बारंबार श्राद्ध कर्मों का अनुष्ठान किया है। पुत्र! जिसने अपनी शक्ति के अनुसार उत्कृष्ट पुण्य का अनुष्ठान किया है और जिसके सौ पुत्र मारे गयें हैं, वही यह गांधारी देवी धैर्यपूर्वक मेरी देखभाल करती है। कुरुनन्दन! जिन्होंने द्रौपदी के साथ अत्याचार किया, तुम्हारे ऐश्वर्य का अपहरण किया, वे क्रूरकर्मी मेरे पुत्र क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध में मारे गये हैं। अब उनके लिये कुछ करने की आवश्यकता नहीं दिखायी देती है। वे सब युद्ध में सम्मुख मारे गये हैं, अतः शस्त्रधारियों को मिलने वाले लोकों में गये हैं। राजेन्द्र! अब तो मुझे और गांधारी देवी को अपने हित के लिये पवित्र तप करना है; अतः इसके लिये हमें अनुमति दो।[2] तुम शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ और सदा धर्म पर अनुराग रखने वाले हो। राजा समस्त प्राणियों के लिये गुरुजन की भाँति आदरणीय होता है। इसलिये तुमसे ऐसा अनुरोध करता हूँ। वीर! तुम्हारी अनुमति मिल जाने पर मैं वन को चला जाऊँगा। राजन, वहाँ मैं चीर और वल्कल धारण करके इस गांधारी के साथ वन में विचरूँगा और तुम्हें आशीर्वाद देता रहूँगा। तात! भरतश्रेष्ठ नरेश्वर! हमारे कुल के सभी राजाओं के लिये यही उचित है कि वे अन्तिम अवस्था में पुत्रों को राज्य देकर स्वयं वन में पधारें। वीर! वहाँ मैं वायु पीकर अथवा उपवास करके रहूँगा तथा अपनी इस धर्मपत्नी के साथ उत्तम तपस्या करूँगा। बेटा! तुम भी उस तपस्या के उत्तम फल के भागी बनोगे; क्योंकि तुम राजा हो और राजा अपने राज्य के भीतर होने वाले भले-बुरे सभी कर्मों के फलभागी होते हैं।'[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-16
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 17-34
  3. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 35-52

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