धृतराष्ट्र का कुरुजांगल की प्रजा से वन जाने हेतु आज्ञा माँगना

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत आठवें अध्याय में वैशम्पायन जी ने धृतराष्ट्र का वन जाने के लिए कुरुजांगल की प्रजा से आज्ञा माँगने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर का संवाद

युधिष्ठिर बोले- पृथ्वीनाथ! नृपश्रेष्ठ! आप जैसा कहते हैं, वैसा ही करूँगा। अभी आप मुझे कुछ और उपदेश दीजिये। भीष्म जी स्वर्ग सिधारे, भगवान श्रीकृष्ण द्वारका पधारे और विदुर तथा संजय भी आपके साथ ही जा रहे हैं। अब दूसरा कौन रह जाता है, जो मुझे उपदेश दे सके। भूपाल! पृथ्वीपते! आज मेरे हितसाधन में संलग्न होकर आप मुझे यहाँ जो कुछ उपदेश देते हैं, मैं उसका पालन करूँगा। आप संतुष्ट हों।

वैशम्पायन जी कहते हैं- भरतश्रेष्ठ! बुद्धिमान धर्मराज युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर राजर्षि धृतराष्ट्र ने कुन्तीकुमार से जाने के लिये अनुमति लेने की इच्छा की और कहा- ‘बेटा! अब शान्त रहो। मुझे बोलने में बड़ा परिश्रम होता है (अब तो मैं जाने की ही अनुमति चाहता हूँ)’ ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र ने उस समय गान्धारी के भवन में प्रवेश किया। वहाँ जब वे आसन पर विराजमान हुए, तब समय का ज्ञान रखने वाली धर्मपरायणा गान्धारी देवी ने उस समय प्रजापति के समान अपने पति से इस प्रकार पूछा- ‘महाराज! स्वयं महर्षि व्यास ने आपको वन में जाने की आज्ञा दे दी है और युधिष्ठिर की भी अनुमति मिल ही गयी है। अब आप कब वन को चलेंगे?’ धृतराष्ट्र ने कहा- गान्धारी! मेरे महात्मा पिता व्यास ने स्वयं तो आज्ञा दे ही दी है, युधिष्ठिर की भी अनुमति मिल गयी है; अतः अब मैं जल्दी ही वन को चलूँगा। जाने के पहले मैं चाहता हूँ कि समस्त प्रजा को घर पर बुलाकर अपने मरे हुए उन जुआरी पुत्रों के उद्देश्य से उनके पारलौकिक लाभ के लिये कुछ धन दान कर दूँ।

धृतराष्ट्र का कुरुजांगलदेश की प्रजा से आज्ञा लेना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र ने धर्मराज युधिष्ठिर के पास अपना विचार कहला भेजा। राजा युधिष्ठिर ने देने के लिये उनकी आज्ञा के अनुसार वह सब सामग्री जुटा दी (धृतराष्ट्र ने उसका यथायोग्य वितरण कर दिया)। उधर राजा का संदेश पाकर कुरुजांगल देश के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वहाँ आये। उन सबके हृदय में बड़ी प्रसन्नता थी। तदनन्तर महाराज धृतराष्ट्र अन्तःपुर से बाहर निकले और वहाँ नगर तथा जनपद की समस्त प्रजा के उपस्थित होने का समाचार सुना। भूपाल जनमेजय! राजा ने देखा कि समस्त पुरवासी और जनपद के लोग वहाँ आ गये हैं। सम्पूर्ण सुहृद् वर्ग के लोग भी उपस्थित हैं और नाना देशों के ब्राह्मण भी पधारे हैं। तब बुद्धिमान अम्बिकानन्दन राजा धृतराष्ट्र ने उन सबको लक्ष्य करके कहा-‘सज्जनों! आप और कौरव चिरकाल से एक साथ रहते आये हैं। आप दोनों एक दूसरे के सुहृद् हैं और दोनों सदा एक दूसरे के हित में तत्पर रहते हैं। इस समय मैं आप लोगों से वर्तमान अवसर पर जो कुछ कहूँ, मेरी उस बात को आप लोग बिना विचारे स्वीकार करें; यही मेरी प्रार्थना है।[1]

मैनें गान्धारी के साथ वन में जाने का निश्चय किया है; इसके लिये मुझे महर्षि व्यास तथा कुन्तीनन्दन राजा युधिष्ठिर की भी अनुमति मिल चुकी है। अब आप लोग भी मुझे वन में जाने की आज्ञा दें। इस विषय में आपके मन में कोई अन्यथा विचार नहीं होना चाहिये। आप लोगों का हमारे साथ तो यह प्रेम सम्बन्ध सदा से चला आ रहा है, ऐसा सम्बन्ध दूसरे देश के राजाओं के साथ वहाँ की प्रजा का नहीं होगा, ऐसा मेरा विश्वास है। निष्पाप प्रजाजन! अब इस बुढ़ापे ने गान्धारी सहित मुझको बहुत थका दिया है। पुत्रों के मारे जाने का दुःख भी बना रहता है तथा उपवास करने के कारण भी हम दोनों अधिक दुर्बल हो गये हैं। सज्जनों! युधिष्ठिर के राज्य में मुझे बड़ा सुख मिला है। मैं समझता हूँ कि दुर्योधन के राज्य से भी बढ़कर सुख मुझे प्राप्त हुआ है। एक तो मैं जन्म का अन्धा हूँ, दूसरे बूढ़ा हो गया हूँ, तीसरे मेरे सभी पुत्र मारे गये हैं। महाभाग प्रजाजन! अब आप ही बतायें, वन में जाने के सिवा मेरे लिये दूसरी कौन सी गति है? इसलिये अब आप लोग मुझे जाने की आज्ञा दें’। भरतश्रेष्ठ! राजा धृतराष्ट्र की ये बातें सुनकर वहाँ उपस्थित हुए कुरुजांगल निवासी सभी मनुष्यों के नेत्रों से आसुँओं की धारा बह चली और वे फूट-फूटकर रोने लगे। उन सबको शोकमग्न होकर कुछ भी उत्तर न देते देख महातेजस्वी धृतराष्ट्र ने पुनः बोलना आरम्भ किया।[2]

टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-16
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 8 श्लोक 17-24

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