धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर की बातचीत

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत 26वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर के मध्य बातचीत का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर की बातचीत

धृतराष्ट्र ने पूछा- महाबाहो युधिष्ठिर! तुम नगर तथा जनपद की समस्त प्रजाओं और भाईयों सहित कुशल से तो हो न? नरेश्वर! जो तुम्हारे आश्रित रहकर जीवन-निर्वाह करते हैं, वे मन्त्री, भृत्यवर्ग और गुरुजन भी सुखी और स्वस्थ तो हैं न? क्या वे भी तुम्हारे राज्य में निर्भर होकर रहते हैं? क्या तुम प्राचीन राजर्षियों से सेवित पुरानी रीति-नीति का पालन करते हो? क्या तुम्हारा खजाना न्यायमार्ग का उल्लंघन किये बिना ही भरा जाता है। क्या तुम शत्रु, मित्र और उदासीन पुरुषों के प्रति यथायोग्य बर्ताव करते हो? भरतश्रेष्ठ! क्या तुम ब्राह्मणों को माफी जमीन देकर उन पर यथोचित दृष्टि रखते हो? क्या तुम्हारे शील स्वभाव से वे संतुष्ट रहते हैं? राजेन्द्र! पुरवासी स्वजनों और सेवकों की तो बात ही क्या है, क्या शत्रु भी तुम्हारे बर्ताव से संतुष्ट रहते हैं? क्या तुम श्रद्धापूर्वक देवताओं और पितरों का यजन करते हो? भारत! क्या तुम अन्न और जल के द्वारा अतिथियों का सत्कार करते हो? क्या तुम्हारे राज्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा कुटुम्बीजन न्याय मार्ग का अवलम्बन करते हुए अपने कर्तव्य के पालन में तत्पर रहते हैं? नरश्रेष्ठ! तुम्हारे राज्य में स्त्रियों, बालकों और वृद्धों को दुःख तो नहीं भोगना पड़ता? वे जीविका के लिये भीख तो नहीं माँगते हैं? तुम्हारे घर में सौभाग्यवती बहू-बेटियों का आदर सत्कार तो होता है न? महाराज! राजर्षियों का यह वंश तुम जैसे राजा को पाकर यथोचित प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है न? इसे यश से वंचित होकर अपयश भागी तो नहीं होना पड़ता?

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! धृतराष्ट्र के इस प्रकार कुशल समाचार पूछने पर बातचीत करने में कुशल न्याय-वेत्ता राजा युधिष्ठिर ने इस प्रकार कहा- युधिष्ठिर बोले- 'राजन! (मेरे यहाँ सब कुशल है) आपके तप, इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह आदि सद्गुणों की वृद्धि हो रही है न? ये मेरी माता कुन्ती आपकी सेवा-शुश्रषा करने में क्लेश का अनुभव तो नहीं करतीं? क्या इनका वनवास सफल होगा? ये मेरी बड़ी माता गान्धारी देवी सर्दी, हवा और रास्ता चलने के परिश्रम से कष्ट पाकर अत्यन्त दुबली हो गयी हैं घोर तपस्या में लगी हुई हैं। ये देवी युद्ध में मारे गये अपने क्षत्रिय धर्मपरायण महापराक्रमी पुत्रों के लिये कभी शोक तो नहीं करतीं? और हम अपराधियों का कभी कोई अनिष्ट तो नहीं सोचती हैं? राजन! ये संजय तो कुशलपूर्वक स्थिरभाव से तपस्या में लगे हुए हैं न? इस समय विदुर जी कहाँ हैं? इन्हें हम लोग नहीं देख पा रहे हैं।


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 26 श्लोक 1-17

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महाभारत आश्रमवासिक पर्व में उल्लेखित कथाएँ


आश्रमवास पर्व

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पुत्रदर्शन पर्व

धृतराष्ट्र का मृत बान्धवों के शोक से दुखी होना | गांधारी और कुंती का व्यास से मृत पुत्रों के दर्शन का अनुरोध | कुंती का कर्ण के जन्म का गुप्त रहस्य बताने का वर्णन | व्यास द्वारा कुंती को सांत्वना देना | व्यास द्वारा धृतराष्ट्र आदि के पूर्वजन्म का परिचय | व्यास के कहने पर सब लोगों का गंगा तटपर जान | व्यास के प्रभाव से कौरव-पाण्डवों का गंगा नदी से प्रकट होना | परलोक से आये व्यक्तियों का रागद्वेषरहित होकर मिलना | व्यास आज्ञा से विधवा क्षत्राणियों का अपने पतियों के लोक जाना | पुत्रदर्शन पर्व के श्रवण की महिमा | वैशम्पायन द्वारा जनमेजय की शंका का समाधान | व्यास की कृपा से जनमेजय को अपने पिता के दर्शन | व्यास की आज्ञा से धृतराष्ट्र आदि पाण्डवों को विदा करना | पाण्डवों का सदलबल हस्तिनापुर में आना

नारदागमन पर्व

नारद का युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र आदि के दावानल में दग्ध होने का समाचार देना | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र आदि की मृत्यु पर शोक करना | धृतराष्ट्र आदि की मृत्यु पर युधिष्ठिर एवं अन्य पांडवों का विलाप | युधिष्ठिर द्वारा धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती की हड्डियों को गंगा में प्रवाहित करना

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