नारद का युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र आदि के दावानल में दग्ध होने का समाचार देना

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में नारदागमन पर्व के अंतर्गत 37वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने नारद द्वारा युधिष्ठिर को धृतराष्ट्र आदि के दावानल में दग्ध होने का हाल सुनाने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

नारदजी का युधिष्ठिर के पास आगमन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! पाण्डवों को तपोवन से आये जब दो वर्ष व्यतीत हो गये, तब एक दिन देवर्षि नारद दैवेच्छा से घूमते-घामते राजा युधिष्ठिर के यहाँ आ पहुँचे। महाबाहु कुरुराज युधिष्ठिर ने नारद जी की पूजा करके उन्हें आसन पर बिठाया। जब वे आसन पर बैठकर थोड़ी देर विश्राम कर चुके, तब वक्ताओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने उनसे इस प्रकार पूछा। ‘भगवान! इधर दीर्घकाल से मैं आपकी उपस्थिति यहाँ नहीं देखता हूँ। ब्रह्मन! कुशल तो है न? अथवा आपको शुभ की प्राप्ति होती है न? विप्रवर! इस समय आपने किन-किन देशों का निरीक्षण किया है? बताइये मैं आप की क्या सेवा करूँ? क्योंकि आप हम लोगों की परम गति हैं’। नारद जी ने कहा- नरेश्वर! बहुत दिन पहले मैंने तुम्हें देखा था, इसीलिये मैं तपोवन से सीधे यहाँ चला आ रहा हूँ। रास्ते में मैंने बहुत-से तीर्थों और गंगा जी का भी दर्शन किया है। युधिष्ठिर बोले- भगवान! गंगा के किनारे रहने वाले मनुष्य मेरे पास आकर कहा करते हैं कि महामनस्वी महाराज धृतराष्ट्र इन दिनों बड़ी कठोर तपस्या में लगे हुए हैं। क्या आपने भी उन्हें देखा है? वे कुरुश्रेष्ठ वहाँ कुशल से तो हैं न? गान्धारी, कुन्ती तथा सूतपुत्र संजय भी सकुशल हैं न? आज कल मेरे ताऊ राजा धृतराष्ट्र कैसे रहते हैं? भगवान! यदि आपने उन्हें देखा हो तो मैं उनका समाचार सुनना चाहता हूँ।

नारद द्वारा धृतराष्ठ्र आदि की तपस्या का वर्णन

नारद जी ने कहा- महाराज! मैंने उस तपोवन में जो कुछ देखा और सुना है, वह सारा वृत्तान्त ठीक-ठीक बतला रहा हूँ। तुम स्थिरचित्त होकर सुनो। कुरुकुल को आनन्दित करने वाले नरेश! जब तुम लोग वन से लौट आये, तब तुम्हारे बुद्धिमान ताऊ राजा धृतराष्ट्र गान्धारी, बहू कुन्ती, सूत संजय, अग्निहोत्र और पुरोहित के साथ कुरुक्षेत्र से गंगाद्वार हरिद्वार- को चले गये। वहाँ जाकर तपस्या के धनी तुम्हारे ताऊ ने कठोर तपस्या आरम्भ की। वे मुँह में पत्थर का टुकड़ा रखकर वायु का आहार करते और मौन रहते थे। उस वन में जितने ऋषि रहते थे, वे लोग उनका विशेष सम्मान करने लगे। महातपस्वी धृतराष्ट्र के शरीर पर चमड़े से ढकी हुई हड्डियों का ढाँचामात्र रह गया था। उस अवस्था में उन्होंने छः महिने व्यतीत किये। भारत! गान्धारी केवल जल पीकर रहने लगीं। कुन्ती देवी एक महीने तक उपवास करके एक दिन भोजन करती थीं और संजय छठे समय अर्थात दो दिन उपवास करके तीसरे दिन संध्या को आहार ग्रहण करते थे। प्रभो! राजा धृतराष्ट्र उस वन में कभी दिखायी देते और कभी अदृश्य हो जाते थे। यज्ञ कराने वाले ब्राह्मण वहाँ उनके द्वारा स्थापित की हुई अग्नि में विधिवत् हवन करते रहते थे। अब राजा का कोई निश्चित स्थान नहीं रह गया। वे वन में सब ओर विचरते रहते थे। गान्धारी और कुन्ती ये दोनों देवियाँ साथ रहकर राजा के पीछे-पीछे लगी रहती थीं। संजय भी उन्हीं का अनुसरण करते थे।[1] ऊँची-नीची भूमि आ जाने पर संजय ही राजा धृतराष्ट्र को चलाते थे और अनिन्दिता सती-साध्वी कुन्ती गान्धारी के लिये नेत्र बनी हुई थीं।

धृतराष्ठ्र आदि का दावाग्नि में दग्ध होना

तदनन्तर एक दिन की बात है, बुद्धिमान नृपश्रेष्ठ धृतराष्ट्र ने गंगा के कछार में जाकर उनके जल में डुबकी लगायी और स्नान के पश्चात् वे अपने आश्रम की ओर चल पड़े। इतने ही में वहाँ बड़े जोर की हवा चली। जिससे उस वन में बड़ी भारी दावाग्नि प्रज्वलित हो उठी। उसने चारों ओर से उस सारे वन को जलाना आरम्भ किया। सब ओर मृगों के झुंड और सर्प दग्ध होने लगे। वनैले सूअर भाग-भागकर जलाशयों की शरण लेने लगे। राजन! सारा वन आग से घिर गया और उन लोगों पर बड़ा भारी संकट आ गया। उपवास करने से प्राणशक्ति क्षीण हो जाने के कारण राजा धृतराष्ट्र वहाँ से भागने में असमर्थ थे, तुम्हारी दोनों माताएँ भी अत्यन्त दुर्बल हो गयी थीं; अतः वे भी भागने में असमर्थ थीं। तदनन्तर विजयी पुरुषों में श्रेष्ठ राजा धृतराष्ट्र ने उस अग्नि को निकट आती जान सूत संजय से इस प्रकार कहा- ‘संजय! तुम किसी ऐसे स्थान में भाग जाओ, जहाँ यह दावाग्नि तुम्हें कदापि जला न सके। हम लोग तो अब यहीं अपने को अग्नि में होम कर परम गति प्राप्त करेंगे’। तब वक्ताओं में श्रेष्ठ संजय ने अत्यन्त उद्विग्न होकर कहा- ‘राजन! इस लौकिक अग्नि से आप की मृत्यु होना ठीक नहीं है, (आपके शरीर का दाह-संस्कार तो आहवनीय अग्नि में होना चाहिये।) किंतु इस समय इस दावानल से छुटकारा पाने का कोई उपाय भी मुझे नहीं दिखायी देता। अब इसके बाद क्या करना चाहिये - यह बताने की कृपा करें।’

संजय के ऐसा कहने पर राजा ने फिर कहा- ‘संजय! हम लोग स्वयं गृहस्थाश्रम का परित्याग करके चले आये हैं, अतः हमारे लिये इस तरह की मृत्यु अनिष्टकारक नहीं हो सकती। जल, अग्नि तथा वायु के संयोग से अथवा उपवास करके प्राण त्यागना तपस्वियों के लिये प्रशंसनीय माना गया है; इसलिये अब तुम शीघ्र यहाँ से चले जाओ। विलम्ब न करो’। संजय से ऐसा कहकर राजा धृतराष्ट्र ने मन को एकाग्र किया और गान्धारी तथा कुन्ती के साथ वे पूर्वाभिमुख होकर बैठ गये। उन्हें उस अवस्था में देख मेधावी संजय ने उनकी परिक्रमा की और कहा- ‘महाराज! अब अपने को योगयुक्त कीजिये। महर्षि व्यास के पुत्र मनीषी राजा धृतराष्ट्र ने संजय की वह बात मान ली। वे इन्द्रिय समुदाय को रोककर काष्ठ की भाँति निश्चेष्ट हो गये। इसके बाद महाभाग गान्धारी, तुम्हारी माता कुन्ती तथा तुम्हारे ताऊ राजा धृतराष्ट्र- ये तीनों ही दावाग्नि में जलकर भस्म हो गये; पंरतु महामात्य संजय उस दावाग्नि से जीवित बच गये हैं। मैंने संजय को गंगा तट पर तापसों से घिरा देखा है। बुद्धिमान और तेजस्वी संजय तापसों को यह सब समाचार बताकर उनसे विदा ले हिमालय पर्वत पर चले गये। प्रजानाथ! इस प्रकार महामनस्वी कुरुराज धृतराष्ट्र तथा तुम्हारी दोनों माताएँ गान्धारी और कुन्ती मृत्यु को प्राप्त हो गयीं।[2] भरतनन्दन! वन में घूमते समय अकस्मात राजा धृतराष्ट्र तथा उन देवियों के मृत शरीर मेरी दृष्टि में पड़े थे। तदनन्तर राजा की मृत्यु का समाचार सुनकर बहुत- से तपोधन उस तपोवन में आये। उन्होंने उनके लिये कोई शोक नहीं किया; क्योंकि उन तीनों की सद्गति के विषय में उनके मन में संशय नहीं था। पुरुषप्रवर पाण्डव! जिस प्रकार राजा धृतराष्ट्र तथा उन दोनों देवियों का दाह हुआ है, यह सारा समाचार मैंने वहीं सुना था। राजेन्द्र! राजा धृतराष्ट्र, गान्धारी और तुम्हारी माता कुन्ती- तीनों ने स्वतः अग्नि संयोग प्राप्त किया था; अतः उनके लिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-16
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 37 श्लोक 17-34
  3. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 37 श्लोक 35-45

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