युधिष्ठिर तथा कुंती द्वारा धृतराष्ट्र और गांधारी की सेवा

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत पहले अध्याय में वैशम्पायन जी ने भाईयों सहित युधिष्ठिर तथा कुन्ती आदि देवियों के द्वारा धृतराष्ट्र और गांधारी की सेवा करने का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

पांडवों द्वारा धृतराष्ट्र और गांधारी की सेवा

अन्तर्यामी नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नर स्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करने वाली) भगवती सरस्वती और (उनकी लीलाओं का संकलन करने वाले) महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके 'जय' (महाभारत) का पाठ करना चाहिये।

जनमेजय ने पूछा- 'ब्राह्मन! मेरे प्रपितामह महात्मा पांडव अपने राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लेने के बाद महाराज धृतराष्ट्र के प्रति कैसा बर्ताव करते थे? राजा धृतराष्ट्र अपने मन्त्री और पुत्रों के मारे जाने से निराश्रय हो गये थे। उनका ऐश्वर्य नष्ट हो गया था। ऐसी अवस्था में वे और गांधारी देवी किस प्रकार जीवन व्यतीत करते थे। मेरे पूर्वपितामह महात्मा पांडव कितने समय तक अपने राज्य पर प्रतिष्ठित रहे? ये सब बातें मुझे विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें।'

वैशम्पायन जी ने कहा- 'राजन! जिनके शत्रु मारे गये थे, वे महात्मा पांडव राज्य पाने के अनन्तर राजा धृतराष्ट्र को ही आगे रखकर पृथ्वी का पालन करने लगे। कुरुश्रेष्ठ! विदुर, संजय तथ वैश्यापुत्र मेधावी युयुत्सु, ये लोग सदा धृतराष्ट्र की सेवा में उपस्थित रहते थे। पांडव लोग सभी कार्यों में राजा धृतराष्ट्र की सलाह पूछा करते थे और उनकी आज्ञा लेकर प्रत्येक कार्य करते थे। इस तरह उन्होंने पंद्रह वर्षों तक राज्य का शासन किया। वीर पांडव प्रतिदिन राजा धृतराष्ट्र के पास जा उनके चरणों में प्रणाम करके कुछ काल तक उनकी सेवा में बैठे रहते थे और सदा धर्मराज युधिष्ठिर की आज्ञा के अधीन रहते थे। धृतराष्ट्र भी स्नेहवश पांडवों का मस्तक सूँघकर जब उन्हें जाने की आज्ञा देते, तब वे आकर सब कार्य किया करते थे। कुन्ती देवी भी सदा गांधारी की सेवा में लगी रहती थीं। द्रौपदी, सुभद्रा और पांडवों की अन्य स्त्रियाँ भी कुन्ती और गांधारी दोनों सासुओं की समान भाव से विधिवत सेवा किया करती थीं। महाराज! राजा युधिष्ठिर बहुमूल्य शय्या, वस्त्र, आभूषण तथा राजा के उपभोग में आने योग्य सब प्रकार के उत्तम पदार्थ एवं अनेकानेक भक्ष्य, भोज्य पदार्थ धृतराष्ट्र को अर्पण किया करते थे। इसी प्रकार कुन्ती देवी भी अपनी सास की भाँति गांधारी की परिचर्या किया करती थीं। कुरुनन्दन! जिनके पुत्र मारे गये थे, उन बूढे़ राजा धृतराष्ट्र की विदुर, संजय और युयुत्सु- ये तीनों सदा सेवा करते रहते थे। द्रोणाचार्य के प्रिय साले महान ब्राह्मण महाधनुर्धर कृपाचार्य तो उन दिनों सदा धृतराष्ट्र के ही पास रहते थे। पुरातन ऋषि भगवान व्यास भी प्रतिदिन उनके पास आकर बैठते और उन्हें देवर्षि, पितर तथा राक्षसों की कथाएँ सुनाया करते थे। धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर जी उनके समस्त धार्मिक और व्यावहारिक कार्य करते-कराते थे।

विदुर जी की अच्छी नीति के कारण उनके बहुतेरे प्रिय कार्य थोडे़ खर्च में ही सामन्तों (सीमावर्ती राजाओं) से सिद्ध हो जाया करते थे। वे कैदियों को कैद से छुटकारा दे देते और वध के योग्य मनुष्यों को भी प्राणदान देकर छोड़ देते थे; किंतु धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर इसके लिये उनसे कभी कुछ कहते नहीं थे। महातेजस्वी कुरुराज युधिष्ठिर विहार और यात्रा के अवसरों पर राजा धृतराष्ट्र को समस्त मनोवांछित वस्तुओं की सुविधा देते थे।[1] राजा धृतराष्ट्र की सेवा में पहले की ही भाँति उक्त अवसरों पर भी रसोई के काम में निपुण आरालिक[2] सूपकार[3] और रागखण्डविक[4] मौजूद रहते थे। पांडव लोग धृतराष्ट्र को यथोचित रूप से बहुमूल्य वस्त्र और नाना प्रकार की मालाएँ भेंट करते थे। वे उनकी सेवा में पहले की ही भाँति सुखभोगप्रद फल के गूदे, हल्के पानक (मीठे शर्बत) और अन्यान्य विचित्र प्रकार के भोजन प्रस्तुत करते थे। भिन्न-भिन्न देशों से जो-जो भूपाल वहाँ पधारते थे, वे सब पहले की ही भाँति कौरवराज धृतराष्ट्र की सेवा में उपस्थित होते थे। पुरुषप्रवर! कुन्ती, द्रौपदी, यशस्विनी सुभद्रा, नागकन्या उलूपी, देवी चित्रांगदा, धृष्टकेतु की बहिन तथा जरासंध की पुत्री- ये तथा कुरु कुल की दूसरी बहुत सी स्त्रियाँ दासी की भाँति सुबलपुत्री गान्धारी की सेवा में लगी रहती थीं। राजा युधिष्ठिर सदा भाईयों को यह उपदेश देते थे कि- "बन्धुओं! तुम ऐसा बर्ताव करो, जिससे अपने पुत्रों से बिछुड़े हुए इन राजा धृतराष्ट्र को किंचित मात्र भी दुःख न प्राप्त हो।" धर्मराज का यह सार्थक वचन सुनकर भीमसेन को छोड़ अन्य सभी भाई धृतराष्ट्र का विशेष आदर सत्कार करते थे। वीरवर भीमसेन के हृदय से कभी भी यह बात दूर नहीं होती थी कि जूए के समय जो कुछ भी अनर्थ हुआ था, वह धृतराष्ट्र की ही खोटी बुद्धि का परिणाम था।'[5]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 1 श्लोक 1-18
  2. 'अरा' नामक शस्त्र से काटकर बनाये जाने के कारण साग-भाजी आदि को ‘अरालू’ कहते हैं। उसको सुन्दर रीति से तैयार करने वाले रसोईये 'आरालिक' कहलाते हैं।
  3. दाल आदि बनाने वाले सामान्यतः सभी रसोईयों को 'सूपकार' कहते हैं।
  4. पीपल, सोंठ और चीनी मिलाकर मूँग का रसा तैयार करने वाले रसोईये 'रागखाण्डविक' कहलाते हैं।
  5. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 1 श्लोक 19-27

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आश्रमवास पर्व

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