युधिष्ठिर के साथ सहदेव और द्रौपदी का वन जाने का उत्साह

महाभारत आश्रमवासिक पर्व में आश्रमवास पर्व के अंतर्गत 22वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने युधिष्ठिर के साथ सहदेव और द्रौपदी का वन जाने का उत्साह का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर के साथ सहदेव और द्रौपदी का वन जाने का उत्साह

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जब राजा वन जाने का विचार कर रहे थे, उस समय सहदेव ने राजा युधिष्ठिर को प्रणाम करके कहा- ‘भैया, मुझे ऐसा दिखायी देता है कि आपका हृदय तपोवन में जाने के लिये उत्सुक है- यह बड़े हर्ष की बात है। राजेन्द्र! मैं आपके गौरव का ख्याल करके संकोचवश वहाँ जाने की बात स्पष्ट रूप से कह नहीं पाता था। आज सौभाग्यवश वह अवसर अपने आप उपस्थित हो गया। मेरा अहोभाग्य कि मैं तपस्या में लगी हुई माता कुन्ती का दर्शन करूँगा। उनके सिर के बाल जटारूप में परिणत हो गये होंगे! वे तपस्विनी बूढ़ी माता कुश और काश के आसनों पर शयन करने के कारण क्षत-विक्षत हो रही होंगी। जो महलों और अट्टालिकाओं में पलकर बड़ी हुई हैं, अत्यन्त सुख की भागिनी रही हैं, वे ही माता कुन्ती अब थककर अत्यन्त दुःख उठाती होंगी!

मुझे कब उनके दर्शन होंगे? भरतश्रेष्ठ! मनुष्यों की गतियाँ निश्चय ही अनित्य होती हैं, जिनमें पड़कर राजकुमारी कुन्ती सुखों से वंचित हो वन में निवास करती हैं’। सहदेव की बात सुनकर नारियों में श्रेष्ठ महारानी द्रौपदी राजा का सत्कार करके उन्हें प्रसन्न करती हुई बोलीं- ‘नरेश्वर! मैं अपनी सास कुन्ती देवी का दर्शन कब करूँगी? क्या वे अब तक जीवित होंगी? यदि वे जीवित हों तो आज उनका दर्शन पाकर मुझे असीम प्रसन्नता होगी। राजेन्द्र! आपकी बुद्धि सदा ऐसी ही बनी रहे। आपका मन धर्म में ही रमता रहे; क्योंकि आज आप हम लोगों को माता कुन्ती का दर्शन कराकर परम कल्याण की भागिनी बनायेंगे।[1] राजन! आपको विदित हो कि अन्तःपुर की सभी बहुएँ वन में जाने के लिये पैर आगे बढ़ाये खड़ी हैं। वे सब की सब कुन्ती, गान्धारी तथा ससुर जी के दर्शन करना चाहती हैं'।[2]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 22 श्लोक 1-16
  2. महाभारत आश्रमवासिक पर्व अध्याय 22 श्लोक 17-25

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